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जलियावाला बाग/jallianwala bhaag
हर साल की तरह इस साल भी एक मेला उमड़ा था शहर के बाहर,
खिल्खिलाते चेहरे एक दुजे को गले लगाते दिख रहें थे।
नया खरीदा सफेद सलवार सूट पहना था माँ ने,
चांद की चांदनी जैसी शीतल लग रही थी वो।
उस दिन बाबा अपने एक मित्र को हमसे मिला रहें थे,
कि तभी भाई ने मेरी चोटी खिची और मैं चिल्लाकर उसके पीछे दौड़ने लगी,
अचानक एक आवाज सुनाई दी और हसता हुआ मेरा भाई ज़मीन पर पड़ा था।
इस से पहलें मैं कुछ समझ पाती बाबा पीछे आए और मुझें गोद में उठा कर भागने लगे,
माँ भी लाल सलवार सूट में सो रही थी थोडी दुरी पर।
लोग दहसत में भाग रहें थे,
कोई दिवार चढ़ने की कोशिश करता,
कोई छुपने की।
हसते हुए चहरे डर मे बदल गए थे।
बाबा अभी भी मुझे गोद मे छुपयाए भाग रहें थे,
उन्हें चोट लगी थी काफी,
उस दिन पेहली बार उनके माथे की शिकंज को पास से देखा था।
कुछ देर बाद आवाजें आनी बन्द हो गई थी,
मेरे हाथ से खून निकल रहा था और
बाबा दिवार के सहारे लेट गए थे तब तक।
मैं बाबा को छोड़ माँ को ढूढने लगी,
वो नहीं मिली तो बाबा के पास रोती हुई आई
और बोली मुझे माँ के पास जाना है,
पर बाबा जवाब नहीं दे रहें थे।
उस दिन इसी तरह हजारों ने अपने परिवार खोए थे।
वो दिन था 13 अप्रैल, 1919 का
जिस दिन इंसानियत भी शर्मसार हुई थी
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