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कांव - कांव
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बात उन दिनों की है जब हम तरके कौव्वे की कांव - कांव और मुर्गे की बांग से उठा करते थे । यही हमारी अलार्म घड़ी हुआ करती थी जो बिना चाबी और बैटरी के ही बिना रुके हमेशा बजकर हमें उठा ही दिया करती थी । भोर का संगीत इसी कौवे की कांव - कांव से आरंभ होकर गायों के गले में बंधी घंटियों के सांझ के संगीत पर खत्म हुआ करती। रात का संगीत झिंगुरों की झनकार और रोशनी जुगनुओं की टिमटिमाहट से हुआ करती थी । जिंदगी की सुबह भले ही कांव - कांव से शुरू होती मगर शाम मधुर घंटियों से हुआ करती । जबसे मोबाइल की नई दुनिया आयी और चारों तरफ टावरों का जाल बिछा , कौवे रूठकर चले गए और अपनी कांव - कांव साथ ले गए और छोड़ गए बस एक नई कांव - कांव । यह नई कांव - कांव मोबाइल की...