प्रेम–: मोह...या...मुक्ति ??
प्रेम सबके लिए एक ही होता है,उसका अनुभव और अनुभूति भी समान ही होती है बस भिन्न होता है तो प्रेम करने और उस प्रेम को प्रकट करने का तरीका, जब एक आत्मा दूसरी आत्मा से प्रेम करती है तो वो निश्चित ही प्रेम में भय, और वेदना से परे रहती हैं क्योंकि वो दो आत्माएं सदैव एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं,उनमें ना शारीरिक रुप से कोई लोभ होता है ना ही प्रतिदिन मिलने की लालसा क्योंकि वो अपने प्रेम के दर्शन हर दिन, हर पल, हर पहर करती हैं, अपने प्रेमी को याद करते ही उन्हें अनुभूति होती है कि वो हमारे साथ हैं,वो हमारे कर्मों में, हमारी ख्याति में, उनसे मिलने के लिए कोई एक समय या अवधि निश्चित नहीं होती वो हर घड़ी रहते है हमारे साथ क्योंकि हमारा तो दो आत्माओं का प्रेम है दो लोगों का नहीं, इसमें शब्दों की कोई आवश्यकता ही नहीं,और जब शब्दों की आवश्यकता नहीं तो शारीरिक रुप से उपस्थिति की क्या उपयोगिता, हमारी आत्माएं बात करती हैं एक दूसरे से, अनुभव करती हैं एक दूसरे को, जब ये प्रेम शारीरिक सम्बन्ध से परे हो जाता है तब प्रेमी संसार के किसी भी कोने में रहे कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि वो हमारे मन से जुड़ा रहता है।
भगवान को कौन सा हम देख सकते हैं सिर्फ अनुभव ही तो करते हैं, उनकी शक्ति को, उनकी भक्ति को महसूस करते हैं और मन प्रसन्न हो जाता है, हम सम्पूर्ण रुप से समर्पित हो जाते हैं उसके प्रति।
प्रेम में भी ठीक इसी प्रकार होता है इसमें कोई बन्धन नहीं होता, इसकी कोई सीमा नहीं है,मुझे लगता है शायद इसी को प्रेम में मुक्ति कहते हैं।
#मेरीप्रेमयात्रा
#akanksha_pandey_सरस्वती
© आकांक्षा मगन "सरस्वती"
भगवान को कौन सा हम देख सकते हैं सिर्फ अनुभव ही तो करते हैं, उनकी शक्ति को, उनकी भक्ति को महसूस करते हैं और मन प्रसन्न हो जाता है, हम सम्पूर्ण रुप से समर्पित हो जाते हैं उसके प्रति।
प्रेम में भी ठीक इसी प्रकार होता है इसमें कोई बन्धन नहीं होता, इसकी कोई सीमा नहीं है,मुझे लगता है शायद इसी को प्रेम में मुक्ति कहते हैं।
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© आकांक्षा मगन "सरस्वती"