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बदलते रंग
सुना तो सबने होगा कि बदलते वक़्त के साथ सब कुछ बदलने लगता है,
इंसान, प्यार, भरोसा, या कुछ भी।
मगर बदलते रंगो की कुछ कहानियाँ सबसे जुदा भी होती हैं,
हाँ! बदल जाने वाला हर शख्स बेवफा नहीं होता। कभी वक़्त के चलते तो कभी किसी मजबूरी के ढलते वो बदल जाता है, और शायद उसका बदल जाना ही एक आखिरी रास्ता रह जाता है, कुछ रिश्तों को जज्बाती उलझने से बचाने को, तो कुछ रिश्तों की धरोहर को फिर से बनाने को;
पर तकलीफ तो तब होती है, जब हमारे न चाहने पर भी मजबूर होकर हमें बदल जाना पड़े,
और वो शक्स जिसकी आँखों में एक बूंद आँसू भी हमसे देखा नहीं जाता था, उसके आँशुओ की वजह खुद हमें बनना पड़े।
हाँ! ऐसा भी होता है, अक्सर इस मंजर से गुजरा इंसान खो देता है वजूद अपना, गुमसुम सा हो जाता है, एक फीकी सी मुस्कान यूँ तो हर वक़्त लिपटी होती है होंठों से उसके, मगर खुल कर हँसे उसे अरसे बीत गए हों जैसे।
वो हंसी सबको समझ नहीं आती, बस वही शख़्स उसके पीछे का दर्द महसूस कर पाता है जो खुद कभी उस मंजर से गुजरा हो, जिसने किसी के बहुत करीब जाकर फिर उसकी दूरी को सहन किया हो।