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दास्ताँ-ए-ज़ुल्म :कालापानी(1942-45)
भारत के बंगाल की खाड़ी में अवस्थित अंदमान निकोबार द्वीप समूह प्राकृतिक रूप से जितना मनोरम है उतना ही कई राज़ को अपने अंदर समाये हुए है | चारों ओर समुन्द्र से घिरे ,जैव विविधता और उष्णकटिबंधीय सदाबहार जंगलो के लिए प्रसिद्ध यह माटी ,कई जुल्मों की गाथा कहती है |
अंदमान निकोबार का नाम लेते ही हमारे मन- मस्तिष्क में सर्वप्रथम कालापानी का ख्याल आता है | १८५७ की क्रांति में तो अंग्रेजों की जित हुई परन्तु इस संग्राम के कारण काफी नुकसान भी हुआ | इसी कारणवश, अंग्रेजी हुकूमत ने क्रांतिकारियों को सजा देने के लिए समुद्र से घिरे कालापानी के पोर्ट ब्लेयर में एक जेल का निर्माण करवाया | जिसे हम ‘सेल्यूलर’ जेल के नाम से जानते है | वतनपरस्त के पागलों को यहाँ इतना सताया जाता था कि कई लोग परेशान हो जाते थे परन्तु वतन से गद्दारी नहीं करते थे | उल्टा लटकाकर मारना ,आग के ऊपर बैठने को कहना इत्यादि जैसी सजाएँ यहाँ मौजूद थी | एक तरह से कहे तो सुविधाओं के अभाव में वतनपरस्तों को एक दूजे से अलग करने और मानसिक ,शारीरिक तौर पर अपंग बनाने का काम किया जाता था | अंग्रेजों की तत्कालीन अत्याचार से भी कई गुना अधिक अत्याचार उन लोगों ने किया जिन्होंने गोरो के बाद इस भूमि की कमान संभाली | पाठक एवं श्रोतागण आगे पढ़कर अवश्य ही अंग्रेजो के शासन को काम आंकना प्रारम्भ कर देंगे | ब्रिटिश शासन के खत्म होने के लगभग 3 साल बाद, एक अंग्रेजी जहाज को आता देख द्वीप के सारे लोग उनकी स्वागत में ऐसे खड़े हुए , जिसे देखकर ब्रिटिश हक्के -बक्के रह गए | क्या था कारण ? जिससे स्थानीय लोगों के हृदय में अंग्रेजों के प्रति सम्मान की भावना जागी यह जानते हुए कि इन्होंने भी हमारे तमाम लोगों को तड़पाकर मार डाला था |
अंग्रेजी अत्याचार अपनी चरम सीमा पर थी | जेल के साथ- साथ यहाँ के स्थानीय लोग भी इनसे प्रताड़ित थे | २३ मार्च १९४२ को जापानियों ने कालापानी की भूमि में प्रवेश किया और चारो तरफ से घेर कर अपने अधीन में ले लिया | यहाँ के २३ ब्रिटिश अफसरों को को बंदी बनाकर सिंगापुर भेज दिया गया | अब कालापानी की ये भूमि अंग्रेजों के हाथ से निकलकर जापानियों के हाथ में चली गयी परन्तु यह ख़ुशी चंद घंटों के लिए ही सिमित थी | इसी शाम जापानी सेना ने शहर में लूटपाट करनी प्रारंभ कर दी और महिलाओं के साथ दुर्वव्यवहार भी करने लगे | जिससे शहर में असंतोष का भाव उमड़ने लगा | जापानियों द्वारा अब अंग्रेजों से भी ज्यादा शोषण प्रारम्भ कर दिया जाता है | एक तरह से कहा जाय कि जापानी सैनिक कालापानी के लोगों के लिए नर्क का इंतजाम करने आये थे | ‘जुल्फिकर’ नामक एक लड़के से महिलाओं और बच्चों के प्रति दुर्वव्यवहार बरदाश न होने के कारण , तुरंत एयर गन लाकर हवा में फायर करता है जिससे जापानी सैनिक अपने हरकतों को रोक दे| लेकिन वे डरने की बजाय और गुस्से में आ जाते हैं और जुल्फिकर नमक युवक को सामने पेश करने की सलाह देते है | इस प्रकार वह , सभी को यह कहते है कि अगर वह युवक उनको नहीं मिला तो शहर को जलाकर राख कर डालेंगे| स्थानीय लोगों में दहशत की भावना ने जुल्फिकर को उनके सामने पेश करने पर विवश कर देती है | सजा के तौर पर,उसका हाथ तब तक मोरा गया, जब तक वह टूट न जाती | इसके पश्चात पांव को तोड़कर मार दिया गया | इस घटना ने पुरे स्थानीय लोगों को हिलाकर रख डाला| जिससे सब अपने- अपने घरो में ही छिप बैठे | परन्तु इसका कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि जापानी सैनिक घर- घर से लोगों को निकालकर अत्याचार किया करते थे |
इस दरिंदगी से बचने के लिए , एक पीस कमेटी का गठन किया गया और इसका
सारा दायित्व ‘डॉ.दिवान सिंह’ को दिया गया | डॉ.साहब हिमाचल प्रदेश के सोलन गांव के रहने वाले थे | आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के कारण गोरो ने उन्हें रंगून भेज दिया था | इसके बाद वह कालापानी की धरती पर आये | यहाँ उन्होंने ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ के अध्यक्ष के रूप में अपनी कमान संभाली | अब इन्होंने अपने संगठन के साथ लोगों के ऊपर अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठानी प्रारम्भ कर दी परन्तु इससे जापानियों को कोईं फर्क पड़ा | ‘एजी बर्ड’ नामक एक अंग्रेजी अधिकारी पर जासूसी का झूठा आरोप लगाकर जापानी कर्नल बूको ने अपने तलवार से उसका सिर धर से अलग कर डाला और कटे सिर को पेड़ पर लटका दिया | जिससे लोगों के बीच अपना दहशत कायम रखा जा सके | डा. दीवान सिंह इस घटना से काफी दुखी हुए | इन्होंने सिर को उतार कर ईसाई रीति- रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया | यह बात जापानियों के कानों तक पहुंच गई जिसका परिणाम यह हुआ कि तीन सौ स्थानीय लोगों के साथ डॉ. साहब पर भी जासूसी का झूठा आरोप लगाया गया | इसी के साथ शहर के नए एस.पी और डी एस पी समेत सात लोगों को भी मौत के घाट उतार दिया गया | तत्कालीन शहर इतना आतंकित हो चुका था कि ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ भी अपने काम एवं सम्मेलन को स्थगित कर देते हैं |
१९४३ में जापानी सरकार ने “कर्नल जोकी रेनुकासाई” को कालापानी की भूमि पर भेजा | इससे पहले इनकी तैनाती नानकिंग में थी | जहाँ कोरियाई लोगों पर इन्होंने अत्याचार की सारी हदें पार कर दी | अब कालापानी की बारी थी जहाँ नरक का दैत्य सामने खड़ा था |यहाँ पहले की अपेक्षा अत्याचार में और बढ़ोत्तरी हुई | शहर में लैंडिंग पोर्ट बनाने के लिए स्थानीय लोगों से बंधुआ मजदूरी करवाई जाती | जो भी इंकार करता, उसे जेल में डाल दिया जाता था | जेल का प्रबंध भी कुछ ऐसा किया गया जिससे लोगों को हर तरह से उनका कहना मानना ही पड़ता था जिसमें नाख़ून उखाड़ना ,उल्टा लटकाकर मारना ,उल्टा लटकाकर निचे आग लगा देना ,कुर्सी के निचे आग रख देना इत्यादि जैसी सजाएं मौजूद थी | इस तरह लगभग तीन महीनों के अंदर छह सौ लोगों को जेल में डाल दिया गया और इस समय डॉ. दीवान सिंह को भी कैद कर लिया गया |
ज़ुल्म की दास्तां इतनी ही नहीं थी बल्कि आगे तो और भी दुष्परिणाम लोगों का इंतज़ार कर रही थी | जापानी सैनिक झूठी स्वीकारोक्ति निकलवाने के लिए तरह -तरह के अत्याचार किया करते थे | इसके बाद ,खुद उनसे कब्र खुदवाते और जमीन में कमर तक गाड़ कर अपने बंदूकों से उनके आंख ,मुँह, कान ,पीठ पर मरने के बाद ,गोलियों की बौछार कर देते थे | इस हरकत से परेशान होकर ,’डा दिवान’ सिंह ने जापानियों से बात-चित भी करनी चाही परन्तु जापानियों ने तो इनकी बात सुनने की बजाय ,इनके शांति समिति को ही भंग कर दिया | एक सप्ताह के अंदर ही उनके दो सौ साथी जेल की सलाखों के पीछे मिले | इसके पश्चात् डॉ. साहब पर ८२ दिनों तक लगातार अत्याचार किये गए | जिसके कारण १४ जनवरी १९४४ को जेल में इनकी मृत्यु हो गई |जेल में इस प्रताड़ना के दौरान,जब नेताजी पोर्ट ब्लेयर आये तो जापानियों ने अपनी करतूत से बचने के लिए इन्हें न ही स्थानियों से मिलने की इजाजत दी और न ही कैदियों ने मिलने दिया गया | अब जापानी सैनिक स्थानीय महिलाओं के साथ जिस्म का खेल खेलने लगे | यहाँ तक कि कोरिया से लड़कियों को कालापानी मंगवाया जाता था | जिसे कम्फर्ट वूमेन कहा गया |
३० दिसम्बर १९४३ को पोर्ट ब्लेयर में ‘आज़ाद हिन्द फौज’ नाम की सरकार बनी | नेताजी ने आज़ाद हिन्द फौज के जनरल ए.डी.लोकनाथन को गवर्नर नियुक्त किया परन्तु जापानियों ने उन्हें सिर्फ शिक्षा व्यवस्था की कमान सँभालने को कही | नेताजी के जाने के एक महीने बाद स्थानीय लोगों ने बर्बरता के विरुद्ध आवाज़ उठायी | जिसके कारण ४४ लोगों को गोलियों से भून दिया गया | जेल से सैनिकों को छोड़कर यह विकल्प दिया गया कि या तो वे आज़ाद हिन्द फौज में सम्मिलित हो या फिर ज़ुल्म को ही गले लगाए | करीब तीस हज़ार सैनिकों ने आज़ाद हिन्द फौज को अपना बनाया परन्तु बाकि के कैदियों को एक नाव में भरकर समुन्द्र में छोर दिया गया | जिससे कुछ ही दिनों में उनलोगों की मौत हो गई | द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था | दुनियाँ तोप ,बम -बारूद पर चर्चा कर रही थी | इसी समय यहाँ अनाज की कमी होने लगी | जिसके कारण जापानियों ने ५०० -१५०० लोगों को एक नाव में बिठाकर कालापानी के दक्षिणी (दक्षिणी अंडमान)प्रान्त के लिए रवाना कर देती हैं | इस प्रकार उन्हें कहा जाता है कि वहाँ जाकर वे खेती करें और आराम से जीवन यापन करें | परन्तु कुछ ही देर बाद ,जबरन सागर में कूदने को बाध्य किया गया | जो नहीं कूदा उसे बन्दूकों एवं तलवारों का सामना करना पड़ा | इनमें से लगभग २५० लोग तैरकर किनारे तक पहुंचे और कुछ ही दिनों में खाने -पीने के आभाव में मारे गए | इन सब में से एक व्यक्ति ‘मोहम्मद सौदागर’ ऐसा था, जो चार दिनों बाद लौट आता है और इस घटना से सबको रूबरू करवाता है | इसी प्रकार ,नौ सौ लोगों को दूसरे द्वीप में ले जाकर , पेड़ से बांध कर गोलियों से भून दिया जाता है | एक आँकड़े के अनुसार “तब अंदमान निकोबार द्वीप समूह की जनसँख्या ४० हज़ार के करीब थी और जापानी शासन के ख़त्म होते -होते यह सिर्फ १० हज़ार लोगों का शहर बन गया था |”
उपर्युक्त समस्त कारणों की वजह से लोगों के हृदय में काफी आक्रोश भड़ा पड़ा था | उनके नजरों में अंग्रेजों का शोषण जापानियों से बहुत हद तक ठीक था | एक घटना से आप सभी पाठक एवं श्रोता अवश्य ही आश्चर्य हो जायेंगे ,जब १४ अगस्त १९४५ को एक ब्रिटिश जहाज पोर्ट ब्लेयर पहुँचता है तो सभी शहरवासी उनका स्वागत करते हैं | जिससे जहाज के तमाम लोग देखकर ये अचंभित हो उठते है कि हमने इतना शोषण किया फिर भी ,ये लोग स्वागत में हमारे लिए खड़े है | ७ अक्टूबर १९४५ को जीम खाना ग्राउंड में जापानियों ने आत्मसमर्पण किया | इस प्रकार हम कह सकते है कि अंदमान निकोबार द्वीप समूह सिर्फ कालापानी का ही नहीं बल्कि ज़ुल्म-ओ-सितम की दस्ताओँ की भूमि हैं |

-अविनाश कुमार साह

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