...

16 views

पुताई
अब नहीं भाते, अब छू कर नहीं जाते,
ये मौसम।
अब मन पे एक मोटी परत जम गयीं हैं
जैसे एक दीवार पर साल दर साल पुताई करने से कितनी ही परते बन जाती है ना ठीक वैसे। और अब इन परतों की वजह से कोई मौसम मेरी मन की दीवारों को बाहर से तो गिला कर देते है, पर अंदर तक उनकी नमी नहीं पहुँच पाती। पानी की तरह प्रभाव बस बाहर ही रिसके चला जाता है, अंदर से शुष्क ही बना रहता है।
अब तो इतना शुष्क हो गया है सब की दीवारें खुद ही नमी को सोख लेती है और रही बची कुछ नमी भी खा जाती है।
हम भी कम नहीं है दीवारें हल्की क्या झरने लगी फिर एक नई परत और और ऐसे ही कितनी परतों में खुद को छुपाते चले जाते है, अगर कोई नमी गीला भी करना चाहे तो भी न पहुच पाये। ये मौसम बदलते है पर मन का मौसम तो एक ही रहता है धूप , बारिश, हवा कुछ तो बदले इससे। लगता है किसी भूकंप की जरूरत है इससे जो इन दीवारों पर कुछ दरारें छोड़ जाए तो शायद किसी रास्ते कहीं , रिसते हुए कोई नमी , कोई धूप अंदर झांके। जिन दरारों को भरने का मन भी न करे बस न ही नई पुताई का। काई लगी उन दीवरों से मन बहलने लग जाये ।

© maniemo