...

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बेरुखी
दो लोग एक दूसरे के साथ जीने मरने की कसमें खाते हैं...और उनमें से एक जब किसी मोड़ पर सब कुछ अपने सीने में दबा कर....अपनी मजबूरियों का बहाना बता कर.....खामोशी से....अपनी राह बदल लेता हैं....और दो लोगो के इस संदर्भ में जब एक अपनी बात रख जाता है बिना दूसरे की सुने....और दूसरा अपनी बात कहता रह जाता है लेकिन उसे सुनने वाला उससे बहुत दूर जा चुका होता है.....दूसरा कह भी रहा है लेकिन उसे कोई सुन नहीं रहा... वो रो रहा...चीख रहा...और उसकी चीखे दीवारों से टकराकर उसी के पास लौट आ रही...

वो कह रहा :

तुमने कहा :

जिंदगी मेरी मजबूरियां मेरी
दर्द मेरा तुम्हे क्या..?

मेरे सवाल :

जख्म तुम्हे
और दर्द मुझे होता क्यूं है..?

दिल तेरा भरता है
आंखें मेरी बरसती क्यूं है..?

खामोशी तेरी
मेरी सजा बन जाती क्यूं है..?

मुस्कुराहटें तेरी
मेरे जीने की वजह क्यूं है..?


एकदम सन्नाटा......ढेरो सवाल......कोई जवाब नहीं......दूसरा रोए जा रहा.....बेबस दीवारें खामोश हैं......उसके आंसू.....उसकी चीखें.....उसका दर्द......और कोई नहीं....उसे समझने वाला....उसे समझाने वाला......और.......एक उदासी......अकेलापन.......उसकी जिंदगी का हिस्सा जिसे अपनाना फिलहाल आसान नहीं उसके लिए......


© अपेक्षा