सड़क
सड़क आगे सपाट थी । चलती हुई, रुकती हुई, बाजार में तब्दील होती हुई, तो कहीं- कहीं ठहरी हुई सी।
सड़क ना होकर जैसे एक जिंदगी हो। कभी विरल तो कभी सघन।
कहीं - कहीं सड़क भीड़ में लुप्त हो जाती है।
तो कहीं - कहीं इतनी खाली , इतनी सपाट
कि ना आदमी ना जीव जंतु ।
इक्का-दुक्का फर्राटे भरते वाहन या ऊबता हुआ कोई आदमी , मानों यूं ही सड़क के अकेलेपन में अपना साथ ढूंढने आ गया हो।
सड़क के किनारे छिटपुट दुकानें भी हैं । कहीं-कहीं तो कतार दर कतार । दूर-दूर लेकिन क्रमबद्ध।
नाई की दुकान पर बैठे लोग , जो ग्राहक नहीं
है । चाय की दुकान और पान की गुमटी पर जमे हुए लोग।
वे थोड़ा और आगे चले । एक गुमटी। गुमटी पर बैठी औरत। वहीं टाइम पास करते कुछ लोग । अखबार पढ़ते , बतियाते सड़क पर आते जाते लोगों को देखते और कुछ सोचते से लोग।
वे ग्राहकों की मदद के लिए दुकानदार की तरफ से पेशकश करते। लगता है वे लोग भी किसी सन्नाटे से घबराकर दुकान पर आ गए हैं ।
वे लोग सन्नाटे से पीछा छुड़ाना चाहते हैं । चेहरे पर उदासी है, रिक्तता है, ऊब है या जीने का संतोष है कुछ स्पष्ट नहीं होता ।
वे भी तो सन्नाटे से घबराकर सड़क पर आए हैं। लेकिन औरों की तरह सड़क पर उनका कोई ख़ास नहीं है । वे थोड़ी देर चलते हैं। कहीं रुकते हैं दो-चार मिनट ।फिर चल देते हैं । और कुछ देर बाद घर में दाखिल हो जाते हैं। ऊब को बढ़ाते हुए तनहाई को गहराते हुए। सब कुछ खामोश समय की स्तब्धता।
जब से वे रिटायर हुए हैं तब से इस सन्नाटे को और भी सुन सकते हैं । पहले भी ऊब थी । जड़ता थी। जिंदगी बेसुरी थी। लय ताल था
ही नहीं। लेकिन रिटायरमेंट के बाद तो वह सब कुछ कई कई गुना बढ़कर जिंदगी में फैल गया है।
यह रोज का क्रम था। आते- जाते सड़क के बारे में उन्होंने कई चीजें स्वत: सिद्ध मान ली
थी ।
यह सड़क शहर के किनारे की सड़क है । कभी यह शहर के उस पार हुआ करती थी । आज शहर में है । शहर सड़क को अपने बीचो-बीच करने की फिराक में है । सड़क के उस पार भी शहर बढ़ गया है । लेकिन अभी भी वह किनारे की सड़क है।
सड़क के किनारे की हर दुकान के पीछे कोई न कोई किस्सा है । ये दुकानें किसी हारी हुई जिंदगी की अंतिम सांस हैं।
दुकानों पर ग्राहक नाम मात्र के हैं । जो है भी वे ग्राहक कम, साथी ज्यादा है।
लड़की ने दुकान खोल दिया है । भाई ने आसपास झाड़ू लगा दिया है । उसने दुकान को करीने से सजाया है। लाल रंग के कपड़े को पानी में भिगोकर बड़े जतन से उस पर डिब्बों को सेट किया है और दुकान को अच्छे से सजाया है ।
पान के पत्ते भिगोकर फैला दिए गए हैं । बाबू गर्व से गुमटी पर चढ़ता है । वह चढ़ने के पहले गुमटी को प्रणाम करता है। कुछ मानता भी है। बाबू ने धूप बत्ती जला दी है । धूप की महक दूर तक जा रही है।
सड़क सुबह कुछ और रहती है। शाम को कुछ और हो जाती है तो दोपहर में कुछ और । बिल्कुल जिंदगी की तरह ।
यह दोपहर का समय है जब सुबह का उछाह खत्म हो गया है और अभी शाम होने में देर है। ऊब बेचैनी या कुछ और? दोपहर किस चीज का पर्याय है ?
शाम , आशा बंधाती है । जो कुछ है या होगा सब कुछ , शाम के धुंधलके में मद्धिम हो जाएगा।
सुबह ताजगी देती है। एक कप चाय पीने की इच्छा , जो पूरी हो जाती है, से शुरू हुई सुबह कब देखते देखते खत्म हो जाती है पता ही नहीं चलता। आदमी सुबह को पकड़ना चाहता है । लेकिन सुबह है कि रुकती नहीं । दोपहर कर्म पथ पर बीतती है ।
लेकिन वह जो कर्म पथ पर हैं ही नहीं । या हैं तो नाम मात्र के हैं उनका ?
मिस्त्री खाली बैठा है। चाय वाले की बेंच पर कई लोग बैठे हैं लेकिन बहुत देर से चाय बनाने की नौबत नहीं आई है। पान की बिक्री हुए कई घंटे बीत गए हैं । दुकान बंद कर घर जाएं या इंतजार करें । क्या करें । सभी संशय में हैं और संशय ग्रस्तता वही जड़ किए है ।
ये दीपक बाबू की रिजर्व जगह है । इस पर वे ही बैठते हैं । दीपक बाबू रोज की तरह आकर अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं । वह कम से कम बोलते हैं । दीपक बाबू आज भी अपनी पुरानी स्टाइल अपनाये हैं। उनका सुपरवाइजरी वाला मिजाज अब भी कायम
है । भले अब काम पर नहीं है, तो क्या हुआ। उनका अदब , उनका तरीका , उनका उठना - बैठना सब अलग । वह किसी की बात नहीं काटते। सहमत ना हो तो भी "आप ठीक
कहते हैं " से अपनी बात शुरू करते हैं ।
लोग एकाएक बोलने लगते हैं फिर देर तक सब खामोश रहते हैं । साथ-साथ । शायद हम खामोशी भी साथ साथ जीना चाहते हैं।
रिटायर्ड आदमी का मन करता है कि वे भी उस खामोशी का हिस्सा बनते।
गाड़ियां आती जाती रहती हैं। फर्राटे भरती सांय सांय करती तो कुछ रेंगती सी। रिक्शे पैदल सभी एक प्रवाह का हिस्सा से।
दुकान पर बैठने पर तो यही लगता है कि जैसे सब कुछ , समय का प्रवाह है । ये वो आते- जाते सभी, कणों का प्रवाह लगते हैं , और वे लोग स्वयं भी।
दुकान बंद करते - करते कीमती सामान को झोले में समेटते हुए छुट्टन भाई ने लड़की को हिसाब समझाया है । आधा किलो आलू एक किलो आटा ₹10 की दाल बाकी बचे ₹2 इसका कुछ ले लेना ।कुछ यानी वह जिसका इंतजार है बब्बू को। नही तो वह घर आसमान पर उठा लेगा । पिता ने पैसे दे दिए हैं । बाकी काम वह करेगी । बाबू घूमते- घुमाते आएगा।
बाबू ने रज्जन बाबू के लड़के को नसीब की दुकान से दो टॉफियां खुद निकाल कर दी है ।यहां के सभी दुकानदारों से उसका घरौटा है । वह सभी से अबे तबे करके बात करता है।
बाबू राजा दिल है। उसका दिल वाकई में राजा का है। बोलता भी राजा की तरह है। बाबू मस्त रहता है।
बिट्टन सामान लेकर जाएगी । बाबू की मस्ती कोई आज की नहीं है । एक समय था जब उसकी थाने में बैठकी होती थी। कोतवाल उसे चौधरी कहते थे ।
पान वाले त्रिवेदी ने बगल से चाय मंगवाई है ।पुराने दोस्त के लिए । कभी त्रिवेदी भी उसके साथ रोडवेज में कंडक्टर थे। आज वे बर्खास्त कंडक्टर हैं ।
पुलिस चौकी के दीवान जी खाली बैठते नहीं है। परिसर की साफ-सफाई खुद करवाते हैं । उन्होंने कुर्सियां लगवा दी है। पुलिस सब इंस्पेक्टर समेत चार लोग बैठे हैं ।
वे किसी अधेड़ महिला से बतला रहे हैं। उस महिला से उसके , बालक की "बाल लीला" सुन रहे हैं।
वे किसी से भी बातें करना चाहते हैं। थाना तभी तक थाना रहता है जब तक ऊपरी अफसर का दबाव रहता है। बाकी समय पुलिस स्टेशन उदार रहता है। बातें करते सिपाही पान वाली से घरेलू समस्या बताते हैं ।
चेक पोस्ट के सिपाही अनायास चेकिंग नहीं करते। वे आते जाते लोगों को देखते रहते हैं बिल्कुल उसी तरह जैसे दुकान पर खाली बैठे लोग सड़क को देखते रहते हैं। आते- जाते लोग । एक प्रवाहमय जिंदगी । जिसके वे भी शायद हिस्सा है । थाने में सब इन्स्पेक्टर ने आह छोड़ी है। शायद घर की याद आई है।
कसाई बचे हुए बकरे , बकरियों को लेकर वापस लौट रहा है। बकरियां कसाई के साथ ऐसे जा रही हैं जैसे पिता के साथ पुत्र जा रहे हो। बकरियां कसाई के पीछे पीछे संतुष्ट भाव से चल रही हैं। बिल्कुल शांत और संतुष्ट।
कसाई के संरक्षण में बकरियां अपने को सुरक्षित कैसे महसूस करती होगी? चलने के पहले कसाई ने बकरियों को पानी पिलाया है। उन्हें ताजे पत्ते खिलाए हैं ।
सब्जी वाली को देख कर कोई मुस्कुराया है और उसने शर्मा कर अपने पल्लू को ठीक किया है । आज सब्जी नहीं लोगों क्या। उसने पूछा
है। नहीं । आज होटल में खाएंगे ।
होटल में खाना गौरव है और सब्जी वाली को यह बताना और भी गौरवपूर्ण है। उसका सार्थक होना है ।
चौकी इंचार्ज ने विचारकों की तर्ज पर दार्शनिक विचार व्यक्त करते हुए ईश्वर की माया को पुलिसिया भाषा में कुछ कहा है। दीवान ने सड़क के किनारे मोबाइल से अपने घर बात किया है। शायद वहां का हाल ठीक नहीं है ।
बेंच पर बैठा बैठा कोई उंघा है तो किसी ने जोर से ओह कहा है।कोई जैसे रोते रोते रह गया है ।एक उदास में दूसरे उदास को सहारा दिया है । एक लाचार ने दूसरे की लाचारी पर तरस खाया है । उसे भरोसा दिलाया है।
जैसे लड़खड़ाते हुए पाये आपस में एक दूसरे को संतुलित कर देते हैं।
किसी नए मेट ने त्रिवेदी पान वाले से दुबारा जर्दा लिया है । और यूपी वालों के कम जर्दा खाने पर व्यंग्य किया है। उसने अपने बिहार वासी होने के गर्व को हवा में उछालते हुए सभी से परिचय किया है । अब वह लोगों से रोज हाल-चाल पूछेगा। आज उसने किसी से मंदिर के बारे में पूछा है। वहां हर मंगल को कीर्तन शुरू कराएगा ।
बर्खास्त सिपाही ने आईपीएस केडर को गाली दी है। छटनीशुदा कर्मचारी ने प्रबंधन पर आक्रोश व्यक्त किया है। ट्यूशन पढ़ाते पढ़ाते जवानी में ही बृद्घ हो गए त्रिवेदी ने सरकारी अफसरों को डकैत की संज्ञा दी है। तो साहब के लड़के ने बीच सड़क पर गाड़ी रोककर त्रिवेदी के पैर छुए हैं।
रिटायर्ड आदमी दोपहर का खाना खा चुका है। वह टीवी का चैनल बदलते बदलते थक गया है। सब बोर। कुछ भी नया नहीं । सब बकवास । लेकिन फिर भी वह चैनलों में किसी आशा से कुछ खोज रहा है।
वह टीवी चैनलों से आस लगाता है फिर कोसता है। वह क्या चाहता है खुद नहीं जानता। लेकिन यह क्रम चलता रहता है। ब्रेकिंग न्यूज़ अभी भी वही चल रही है । वह बोर होने के बाद खाना खाता है और खाते ही फिर उबने लगता है। वह बाहर आता है। फिर सब ठीक-ठाक है का भाव लेकर सोफे पर पसर जाता है।
वह पुरानी तस्वीरों को देखता है । यादों को पकड़ना चाहता है । लेकिन यादें ठहरती नहीं चली जाती हैं । वह यादों को जीना चाहता है। यादें हैं कि, वे चली जाती हैं। मन कहीं और जाकर ठहर जाता है। सोफे के हत्थे। पर या चलते हुए पंखे पर या बाहर आते जाते लोगों पर ।
वह सड़क पर जाने में डरता है । डरता नहीं संकोच करता है । क्या बतलाएगा ? किससे बतलाएगा?
काश! उसी प्रवाह के वे भी एक हिस्सा होते। बिल्कुल उन्हें लोगों की तरह वहां उनकी भी एक जगह होती। अपने खालीपन का उनके खालीपन से, अपने अनुपयुक्तता का , उनके अनुपयुक्तता से मिलान करता ।
ऊब और खालीपन के साथ आ गए अनुपयुक्तता के भाव की बेदी पर वह भी अपने उसी भाव की वहां आहुति दे देता ।
त्रिवेदी खाना खाकर आ गया है। वह बीच-बीच में घर जाएगा थोड़ी थोड़ी देर के लिए। वी आर एस के बाद यही उसका रूटीन है । त्रिवेदी अक्सर गंदे और पुराने कपड़ों में रहता है। इसी में वह अपने को रिलैक्स पाता है । देखने में जाहिर लगता है , लेकिन बात और अदब में नवाबों को भी मात देता है ।
कुछ रिक्शा वाले और आ गए हैं। वे यहां सवारियों के लिए नहीं रिलैक्स करने के लिए रुकते हैं। वे यहां चाय पिएंगे। बीड़ी सुलगाएगें । लेकिन रिक्शे पर बैठकर नहीं ।
थोड़ी देर के लिए वे रिक्शे के बोझ और पहचान से मुक्त होना चाहते हैं । त्रिवेदी को किसी लाचार सवारी पर तरस आ जाता है और वह एक रिक्शे को राज़ी कर लेता है । " इंसान ही इंसान के काम आता है "।
रईस एक खटारा साइकिल को चलने लायक बना चुके हैं। अब उनकी दुकान पर पहले जैसी रौनक नहीं रहती ।
क्योंकि अब वयस्क लोग साइकिल नही चलाते। छोटे बच्चे ही बचे हैं जो साइकिल से आते - जाते हैं। छोटू ने साइकिल का हिसाब पूछा है।रईस 15 रुपए से10 पर आ जाता है। रईस और छोटू दोस्त की तरह बातें करेंगे । रईस साइकिल के पुर्जे दर पुर्जे की " मीमांसा" करेगा । छोटू शागिर्द की तरह एक-एक चीज समझेगा । रईस समझाता जाएगा। रईस एक- एक बोल्ट टाइट करता है। कोने - कोने को साफ करता है ।
छोटू अब इत्मीनान से गुमटी पर बैठकर सड़क को देखता है। आने जाने वालों को देखता है । गाड़ियों को देखता है। उसे लगता है कि सब एक प्रवाह है । केवल एक प्रवाह ।
छोटू वहां बैठकर गौरव महसूस करता है । खासकर तब, जब बड़े लोग उसका नाम लेकर उससे हालचाल पूछते हैं।
कुछ बड़े बालक सिगरेट पीने के लिए कोने में आ गए हैं। पान वाली सिगरेट देती है और वहां से हटने को खाती है। वे हट जाते हैं। कोने में दुकान के पीछे। पेड़ के नीचे । जहां उन्हें राहत महसूस होती है। वे सिगरेट जलाते हैं । कश खींचते हैं और चुपके से आने- जाने वालों को देखते हैं। पान वाली इन लोगों से स्नेह रखती है। किसी के पापा को देखते ही उन्हें. आगाह करती है।
उसे सब पता है। कौन, कहां का है। पिता भाई बहन सहित पूरे परिवार की जानकारी उसे है। बड़े बालक सिगरेट पीते हैं। खामोश रहते हैं फिर चले जाते हैं।
रिटायर्ड आदमी भी वहां पहुंचता है । वह सकुचाते सकुचाते दुकान तक पहुंचा है। उसने पान वाली से पान लगाने को कहा है । पान वाली ने उनसे नमस्कार किया है। वे अटपटा से जाते हैं । फिर बड़े ही अदब से नमस्कार का जवाब देते हैं। वे उसे निहारते हैं । वह भी उन्हें निहारती है। और दोनों मुस्कुरा पढ़ते हैं।***
राजेन्द्र कुमार पाण्डेय।
© All Rights Reserved
सड़क ना होकर जैसे एक जिंदगी हो। कभी विरल तो कभी सघन।
कहीं - कहीं सड़क भीड़ में लुप्त हो जाती है।
तो कहीं - कहीं इतनी खाली , इतनी सपाट
कि ना आदमी ना जीव जंतु ।
इक्का-दुक्का फर्राटे भरते वाहन या ऊबता हुआ कोई आदमी , मानों यूं ही सड़क के अकेलेपन में अपना साथ ढूंढने आ गया हो।
सड़क के किनारे छिटपुट दुकानें भी हैं । कहीं-कहीं तो कतार दर कतार । दूर-दूर लेकिन क्रमबद्ध।
नाई की दुकान पर बैठे लोग , जो ग्राहक नहीं
है । चाय की दुकान और पान की गुमटी पर जमे हुए लोग।
वे थोड़ा और आगे चले । एक गुमटी। गुमटी पर बैठी औरत। वहीं टाइम पास करते कुछ लोग । अखबार पढ़ते , बतियाते सड़क पर आते जाते लोगों को देखते और कुछ सोचते से लोग।
वे ग्राहकों की मदद के लिए दुकानदार की तरफ से पेशकश करते। लगता है वे लोग भी किसी सन्नाटे से घबराकर दुकान पर आ गए हैं ।
वे लोग सन्नाटे से पीछा छुड़ाना चाहते हैं । चेहरे पर उदासी है, रिक्तता है, ऊब है या जीने का संतोष है कुछ स्पष्ट नहीं होता ।
वे भी तो सन्नाटे से घबराकर सड़क पर आए हैं। लेकिन औरों की तरह सड़क पर उनका कोई ख़ास नहीं है । वे थोड़ी देर चलते हैं। कहीं रुकते हैं दो-चार मिनट ।फिर चल देते हैं । और कुछ देर बाद घर में दाखिल हो जाते हैं। ऊब को बढ़ाते हुए तनहाई को गहराते हुए। सब कुछ खामोश समय की स्तब्धता।
जब से वे रिटायर हुए हैं तब से इस सन्नाटे को और भी सुन सकते हैं । पहले भी ऊब थी । जड़ता थी। जिंदगी बेसुरी थी। लय ताल था
ही नहीं। लेकिन रिटायरमेंट के बाद तो वह सब कुछ कई कई गुना बढ़कर जिंदगी में फैल गया है।
यह रोज का क्रम था। आते- जाते सड़क के बारे में उन्होंने कई चीजें स्वत: सिद्ध मान ली
थी ।
यह सड़क शहर के किनारे की सड़क है । कभी यह शहर के उस पार हुआ करती थी । आज शहर में है । शहर सड़क को अपने बीचो-बीच करने की फिराक में है । सड़क के उस पार भी शहर बढ़ गया है । लेकिन अभी भी वह किनारे की सड़क है।
सड़क के किनारे की हर दुकान के पीछे कोई न कोई किस्सा है । ये दुकानें किसी हारी हुई जिंदगी की अंतिम सांस हैं।
दुकानों पर ग्राहक नाम मात्र के हैं । जो है भी वे ग्राहक कम, साथी ज्यादा है।
लड़की ने दुकान खोल दिया है । भाई ने आसपास झाड़ू लगा दिया है । उसने दुकान को करीने से सजाया है। लाल रंग के कपड़े को पानी में भिगोकर बड़े जतन से उस पर डिब्बों को सेट किया है और दुकान को अच्छे से सजाया है ।
पान के पत्ते भिगोकर फैला दिए गए हैं । बाबू गर्व से गुमटी पर चढ़ता है । वह चढ़ने के पहले गुमटी को प्रणाम करता है। कुछ मानता भी है। बाबू ने धूप बत्ती जला दी है । धूप की महक दूर तक जा रही है।
सड़क सुबह कुछ और रहती है। शाम को कुछ और हो जाती है तो दोपहर में कुछ और । बिल्कुल जिंदगी की तरह ।
यह दोपहर का समय है जब सुबह का उछाह खत्म हो गया है और अभी शाम होने में देर है। ऊब बेचैनी या कुछ और? दोपहर किस चीज का पर्याय है ?
शाम , आशा बंधाती है । जो कुछ है या होगा सब कुछ , शाम के धुंधलके में मद्धिम हो जाएगा।
सुबह ताजगी देती है। एक कप चाय पीने की इच्छा , जो पूरी हो जाती है, से शुरू हुई सुबह कब देखते देखते खत्म हो जाती है पता ही नहीं चलता। आदमी सुबह को पकड़ना चाहता है । लेकिन सुबह है कि रुकती नहीं । दोपहर कर्म पथ पर बीतती है ।
लेकिन वह जो कर्म पथ पर हैं ही नहीं । या हैं तो नाम मात्र के हैं उनका ?
मिस्त्री खाली बैठा है। चाय वाले की बेंच पर कई लोग बैठे हैं लेकिन बहुत देर से चाय बनाने की नौबत नहीं आई है। पान की बिक्री हुए कई घंटे बीत गए हैं । दुकान बंद कर घर जाएं या इंतजार करें । क्या करें । सभी संशय में हैं और संशय ग्रस्तता वही जड़ किए है ।
ये दीपक बाबू की रिजर्व जगह है । इस पर वे ही बैठते हैं । दीपक बाबू रोज की तरह आकर अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं । वह कम से कम बोलते हैं । दीपक बाबू आज भी अपनी पुरानी स्टाइल अपनाये हैं। उनका सुपरवाइजरी वाला मिजाज अब भी कायम
है । भले अब काम पर नहीं है, तो क्या हुआ। उनका अदब , उनका तरीका , उनका उठना - बैठना सब अलग । वह किसी की बात नहीं काटते। सहमत ना हो तो भी "आप ठीक
कहते हैं " से अपनी बात शुरू करते हैं ।
लोग एकाएक बोलने लगते हैं फिर देर तक सब खामोश रहते हैं । साथ-साथ । शायद हम खामोशी भी साथ साथ जीना चाहते हैं।
रिटायर्ड आदमी का मन करता है कि वे भी उस खामोशी का हिस्सा बनते।
गाड़ियां आती जाती रहती हैं। फर्राटे भरती सांय सांय करती तो कुछ रेंगती सी। रिक्शे पैदल सभी एक प्रवाह का हिस्सा से।
दुकान पर बैठने पर तो यही लगता है कि जैसे सब कुछ , समय का प्रवाह है । ये वो आते- जाते सभी, कणों का प्रवाह लगते हैं , और वे लोग स्वयं भी।
दुकान बंद करते - करते कीमती सामान को झोले में समेटते हुए छुट्टन भाई ने लड़की को हिसाब समझाया है । आधा किलो आलू एक किलो आटा ₹10 की दाल बाकी बचे ₹2 इसका कुछ ले लेना ।कुछ यानी वह जिसका इंतजार है बब्बू को। नही तो वह घर आसमान पर उठा लेगा । पिता ने पैसे दे दिए हैं । बाकी काम वह करेगी । बाबू घूमते- घुमाते आएगा।
बाबू ने रज्जन बाबू के लड़के को नसीब की दुकान से दो टॉफियां खुद निकाल कर दी है ।यहां के सभी दुकानदारों से उसका घरौटा है । वह सभी से अबे तबे करके बात करता है।
बाबू राजा दिल है। उसका दिल वाकई में राजा का है। बोलता भी राजा की तरह है। बाबू मस्त रहता है।
बिट्टन सामान लेकर जाएगी । बाबू की मस्ती कोई आज की नहीं है । एक समय था जब उसकी थाने में बैठकी होती थी। कोतवाल उसे चौधरी कहते थे ।
पान वाले त्रिवेदी ने बगल से चाय मंगवाई है ।पुराने दोस्त के लिए । कभी त्रिवेदी भी उसके साथ रोडवेज में कंडक्टर थे। आज वे बर्खास्त कंडक्टर हैं ।
पुलिस चौकी के दीवान जी खाली बैठते नहीं है। परिसर की साफ-सफाई खुद करवाते हैं । उन्होंने कुर्सियां लगवा दी है। पुलिस सब इंस्पेक्टर समेत चार लोग बैठे हैं ।
वे किसी अधेड़ महिला से बतला रहे हैं। उस महिला से उसके , बालक की "बाल लीला" सुन रहे हैं।
वे किसी से भी बातें करना चाहते हैं। थाना तभी तक थाना रहता है जब तक ऊपरी अफसर का दबाव रहता है। बाकी समय पुलिस स्टेशन उदार रहता है। बातें करते सिपाही पान वाली से घरेलू समस्या बताते हैं ।
चेक पोस्ट के सिपाही अनायास चेकिंग नहीं करते। वे आते जाते लोगों को देखते रहते हैं बिल्कुल उसी तरह जैसे दुकान पर खाली बैठे लोग सड़क को देखते रहते हैं। आते- जाते लोग । एक प्रवाहमय जिंदगी । जिसके वे भी शायद हिस्सा है । थाने में सब इन्स्पेक्टर ने आह छोड़ी है। शायद घर की याद आई है।
कसाई बचे हुए बकरे , बकरियों को लेकर वापस लौट रहा है। बकरियां कसाई के साथ ऐसे जा रही हैं जैसे पिता के साथ पुत्र जा रहे हो। बकरियां कसाई के पीछे पीछे संतुष्ट भाव से चल रही हैं। बिल्कुल शांत और संतुष्ट।
कसाई के संरक्षण में बकरियां अपने को सुरक्षित कैसे महसूस करती होगी? चलने के पहले कसाई ने बकरियों को पानी पिलाया है। उन्हें ताजे पत्ते खिलाए हैं ।
सब्जी वाली को देख कर कोई मुस्कुराया है और उसने शर्मा कर अपने पल्लू को ठीक किया है । आज सब्जी नहीं लोगों क्या। उसने पूछा
है। नहीं । आज होटल में खाएंगे ।
होटल में खाना गौरव है और सब्जी वाली को यह बताना और भी गौरवपूर्ण है। उसका सार्थक होना है ।
चौकी इंचार्ज ने विचारकों की तर्ज पर दार्शनिक विचार व्यक्त करते हुए ईश्वर की माया को पुलिसिया भाषा में कुछ कहा है। दीवान ने सड़क के किनारे मोबाइल से अपने घर बात किया है। शायद वहां का हाल ठीक नहीं है ।
बेंच पर बैठा बैठा कोई उंघा है तो किसी ने जोर से ओह कहा है।कोई जैसे रोते रोते रह गया है ।एक उदास में दूसरे उदास को सहारा दिया है । एक लाचार ने दूसरे की लाचारी पर तरस खाया है । उसे भरोसा दिलाया है।
जैसे लड़खड़ाते हुए पाये आपस में एक दूसरे को संतुलित कर देते हैं।
किसी नए मेट ने त्रिवेदी पान वाले से दुबारा जर्दा लिया है । और यूपी वालों के कम जर्दा खाने पर व्यंग्य किया है। उसने अपने बिहार वासी होने के गर्व को हवा में उछालते हुए सभी से परिचय किया है । अब वह लोगों से रोज हाल-चाल पूछेगा। आज उसने किसी से मंदिर के बारे में पूछा है। वहां हर मंगल को कीर्तन शुरू कराएगा ।
बर्खास्त सिपाही ने आईपीएस केडर को गाली दी है। छटनीशुदा कर्मचारी ने प्रबंधन पर आक्रोश व्यक्त किया है। ट्यूशन पढ़ाते पढ़ाते जवानी में ही बृद्घ हो गए त्रिवेदी ने सरकारी अफसरों को डकैत की संज्ञा दी है। तो साहब के लड़के ने बीच सड़क पर गाड़ी रोककर त्रिवेदी के पैर छुए हैं।
रिटायर्ड आदमी दोपहर का खाना खा चुका है। वह टीवी का चैनल बदलते बदलते थक गया है। सब बोर। कुछ भी नया नहीं । सब बकवास । लेकिन फिर भी वह चैनलों में किसी आशा से कुछ खोज रहा है।
वह टीवी चैनलों से आस लगाता है फिर कोसता है। वह क्या चाहता है खुद नहीं जानता। लेकिन यह क्रम चलता रहता है। ब्रेकिंग न्यूज़ अभी भी वही चल रही है । वह बोर होने के बाद खाना खाता है और खाते ही फिर उबने लगता है। वह बाहर आता है। फिर सब ठीक-ठाक है का भाव लेकर सोफे पर पसर जाता है।
वह पुरानी तस्वीरों को देखता है । यादों को पकड़ना चाहता है । लेकिन यादें ठहरती नहीं चली जाती हैं । वह यादों को जीना चाहता है। यादें हैं कि, वे चली जाती हैं। मन कहीं और जाकर ठहर जाता है। सोफे के हत्थे। पर या चलते हुए पंखे पर या बाहर आते जाते लोगों पर ।
वह सड़क पर जाने में डरता है । डरता नहीं संकोच करता है । क्या बतलाएगा ? किससे बतलाएगा?
काश! उसी प्रवाह के वे भी एक हिस्सा होते। बिल्कुल उन्हें लोगों की तरह वहां उनकी भी एक जगह होती। अपने खालीपन का उनके खालीपन से, अपने अनुपयुक्तता का , उनके अनुपयुक्तता से मिलान करता ।
ऊब और खालीपन के साथ आ गए अनुपयुक्तता के भाव की बेदी पर वह भी अपने उसी भाव की वहां आहुति दे देता ।
त्रिवेदी खाना खाकर आ गया है। वह बीच-बीच में घर जाएगा थोड़ी थोड़ी देर के लिए। वी आर एस के बाद यही उसका रूटीन है । त्रिवेदी अक्सर गंदे और पुराने कपड़ों में रहता है। इसी में वह अपने को रिलैक्स पाता है । देखने में जाहिर लगता है , लेकिन बात और अदब में नवाबों को भी मात देता है ।
कुछ रिक्शा वाले और आ गए हैं। वे यहां सवारियों के लिए नहीं रिलैक्स करने के लिए रुकते हैं। वे यहां चाय पिएंगे। बीड़ी सुलगाएगें । लेकिन रिक्शे पर बैठकर नहीं ।
थोड़ी देर के लिए वे रिक्शे के बोझ और पहचान से मुक्त होना चाहते हैं । त्रिवेदी को किसी लाचार सवारी पर तरस आ जाता है और वह एक रिक्शे को राज़ी कर लेता है । " इंसान ही इंसान के काम आता है "।
रईस एक खटारा साइकिल को चलने लायक बना चुके हैं। अब उनकी दुकान पर पहले जैसी रौनक नहीं रहती ।
क्योंकि अब वयस्क लोग साइकिल नही चलाते। छोटे बच्चे ही बचे हैं जो साइकिल से आते - जाते हैं। छोटू ने साइकिल का हिसाब पूछा है।रईस 15 रुपए से10 पर आ जाता है। रईस और छोटू दोस्त की तरह बातें करेंगे । रईस साइकिल के पुर्जे दर पुर्जे की " मीमांसा" करेगा । छोटू शागिर्द की तरह एक-एक चीज समझेगा । रईस समझाता जाएगा। रईस एक- एक बोल्ट टाइट करता है। कोने - कोने को साफ करता है ।
छोटू अब इत्मीनान से गुमटी पर बैठकर सड़क को देखता है। आने जाने वालों को देखता है । गाड़ियों को देखता है। उसे लगता है कि सब एक प्रवाह है । केवल एक प्रवाह ।
छोटू वहां बैठकर गौरव महसूस करता है । खासकर तब, जब बड़े लोग उसका नाम लेकर उससे हालचाल पूछते हैं।
कुछ बड़े बालक सिगरेट पीने के लिए कोने में आ गए हैं। पान वाली सिगरेट देती है और वहां से हटने को खाती है। वे हट जाते हैं। कोने में दुकान के पीछे। पेड़ के नीचे । जहां उन्हें राहत महसूस होती है। वे सिगरेट जलाते हैं । कश खींचते हैं और चुपके से आने- जाने वालों को देखते हैं। पान वाली इन लोगों से स्नेह रखती है। किसी के पापा को देखते ही उन्हें. आगाह करती है।
उसे सब पता है। कौन, कहां का है। पिता भाई बहन सहित पूरे परिवार की जानकारी उसे है। बड़े बालक सिगरेट पीते हैं। खामोश रहते हैं फिर चले जाते हैं।
रिटायर्ड आदमी भी वहां पहुंचता है । वह सकुचाते सकुचाते दुकान तक पहुंचा है। उसने पान वाली से पान लगाने को कहा है । पान वाली ने उनसे नमस्कार किया है। वे अटपटा से जाते हैं । फिर बड़े ही अदब से नमस्कार का जवाब देते हैं। वे उसे निहारते हैं । वह भी उन्हें निहारती है। और दोनों मुस्कुरा पढ़ते हैं।***
राजेन्द्र कुमार पाण्डेय।
© All Rights Reserved