...

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जिद्दो- जहद
वो भूचाल जो मेरे शांत दिखते मन के भीतर उफन रहा था..
बूंद- बूंद बन एक समंदर में बदल रहा था,
रोके ना रुके एसी बाड़ धीरे-धीरे निकल पड़ी थी उन सभी बुरे विचारों को अपने साथ बहा ले जाने के लिए जो कहीं ना कहीं मेरी इंसानियत को मारने में लगे थे !
मैं तय्यार कर रही थीं एक विशाल बांध जो उसे अपने भीतर कैद
कर सकता था, मगर कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते थे !
वो जानते थे आक्रोश से भरे कुछ चंद शब्द किसी के जीवन में कितनी तबाही ला सकते थे, जाने कितने ही रिश्तों को बिगाड़ सकते थे....
वो फिर भी बार- बार मुझे उकसाने में लगे थे !
मेरे सब्र से बने बांध को कमजोर करने के खातिर, वो कई नुकीले तीरो से मुझपर वार कर रहे थे !
ये वही लोग थे जो मुझे जानते तक नहीं थे, मगर फिर भी अपनी दिलचस्पी मेरे जीवन पर दिखा रहे थे !
इन् लोगों के जाल से बचने के लिए मेरा मौन होना जरूरी था..
मेरा साथ दे रहे थे मेरे दो हाथ जो मेरे मुख को कस कर दबाये हुए थे !
मैं हार नहीं मान सकती थी, इतनी दूरी तय करने के बाद अब पीछे हटना मुश्किल था !
मेरा हौसला देख उनकी कोशिशें डगमगाने लगी और देखते ही देखते उनके वो तीखे तीर खत्म हो गए,
अब वो दूर- दूर तक कहिं दिखाई नहीं दे रहे थे!
वो विशाल बांध मजबूती से बन खड़ा हो गया था, जिसे अब कोई गिरा नहीं सकता था, वो था मेरा हौसला और अटूट विश्वास !

© @mrinalini_rana