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सत्संग
सृजनपल्ली नाम का एक गांव था।उस गांव में शिवानंद जी नाम एक सात्विक, अध्यात्मिक तथा दयालु रहते थे। शिवानंद जी उस गांव के मुखिया भी थे। गांव के मध्यभाग में बहुत बड़ा
सुंदर घर था। गांव का विकास तथा विविध अभिवृद्धि कार्यों में उनका बहुत योगदान रहता था, और अपने हाथ से जितना हो सके उतना, गांव कि तरक्की तथा एकता, सद्भावना के लिए कुछ ना कुछ अध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं क्रिडा जैसे अपने नेतृत्व आयोजन किया करते थे। ऐसे गौरवान्वित शिवानंद जी बात हर कोई मानता था शिवानंद सिर्फ मुखिया नहीं बल्कि गांव के छोटे बडे झगड़ों को मिटाकर, सही न्याय भी करते थे।वह प्रामाणिकता तथा न्यायमूर्ति के लिए जाने जाते थे। शिवानंद जी कि पत्नी पद्मिनी भी एक बड़े व्यापारी कि बेटी थी,वह पुजा पाठ और घर कामकाज करती थी। पद्मिनी बड़े व्यापारी की बेटी होने का थोड़ा सा घमंड था ।घर के नौकर-चाकर तथा अपने से कम लोगों के साथ दर्प से व्यवहार करती थी।
एक दिन सृजनपल्ली गांव में संचार करते करते सिद्धनाथ नाम के संत आ गए।यह बात गांव वालों ने मुखिया शिवानंद जी को बताया। शिवानंद जी यह बात सुनते ही, अपने पैरों में चप्पल पहने बीना, वैसे ही संत जी के पास दौड़ते चले आए।उनको प्रणाम कर , उनको अपने गांव में कुछ दिन रहकर, गांव के लोगों को प्रबोधन करने कि विनंती की। शिवानंद जी सात्विक भाव तथा विनम्रता देखकर,संत सिद्धनाथ जी एक हफ्ता सृजनपल्ली गांव में रहकर प्रवचन देने के लिए मान गए। गांव वालों को बहुत आनंद हुआ। मुखिया और गांव वाले मिलकर उनकी रहने के लिए एक मंदिर में वास्तव तथा प्रवचन के लिए पाठशाला के परिसर में आयोजन किया।
संत सिद्धनाथ जी की दिनचर्या एक विशेष थी। संत जी समय के पक्के प्रतिपालक भी थे।संत जी रोज ब्रम्ही मुहुर्त में उठते, कुछ घंटे ध्यान एवं योग साधना करते थे और उसके बाद वायुविहार करते थे, वायु विहार पश्चात नदी में स्नान करके आते थे। मंदिर में पुजा अर्चना करते थे। सुबह-सुबह ही एक घंटा अध्यात्मिक,सामाजिक तथा प्रकृति की विषयों पर प्रवचन देना, उसके बाद आए हुए लोगों के साथ बैठकर चिंतन मंथन करते थे। और कोई सवाल पुछे तो उसको अच्छी तरह , उसे समझ आए ऐसे सरल भाषा में समझाते हुए जवाब दिया करते थे।
चिंतन-मंथन के बाद गांव में दो-चार घर एक छोटी सी टोकरी लेकर,सुबह तथा श्याम को जीतना हो उतना प्रसाद(भोजन )करने के लिए भिक्षा मांगने जाते थे। भिक्षा मांगकर लाएं हुए में से थोड़ा सुबह प्रसाद(भोजन )करते थे और गांव में श्रमदान करने जाते थे। श्रमदान कर वापस आकर कुछ किताबें पढ़ते थे। पढ़ने बाद पाठशाला जाते, वहां बच्चों को कुछ दैहिक तथा मनोविकास बौध्दिक उपन्यास देकर, वहां फिर वापस आकर सुर्यास्त से पहले थोड़ा प्रसाद कर , संध्याकाल में मंदिर परिसर में ही वायुविहार करते थे। मुखिया और गांव के साथ बैठकर गांव का विकास तथा जनहित पर चर्चा करते थे। उसके बाद विश्राम करते थे।ईस तरह संत जी कि दिनचर्या होती थी।
ऐसे ही एक दिन संत सिद्धनाथ भिक्षा मांगते मांगते, मुखिया शिवानंद जी के व्दार पर आ गए,उस समय मुखिया जी घर में नहीं थे, कुछ काम के कारण बाहर गए थे।नौकर ने पद्मिनी को संत जी भिक्षा मांगने, हमारे घर आए हैं,यह सुनकर खुशी से खुद भिक्षा देने , कुछ फल भिक्षा देते हुए बोली -"संत जी, कृपा करके हमारे घर के अंदर आईए, आपको गरमा गरम मिष्ठान्न भोजन बनाकर दूंगी,भोजन स्विकार किजीए।" और आप मुझे हमारे घर में ही अध्यात्मिक उपदेश दिजीए।"
संत जी बोले "माते आपने भिक्षा में फल दिया, उसके लिए धन्यवाद,हम संत किसी के घर में भोजन नहीं करते।जो भिक्षा मिले,उसे स्वीकार किया करते है।"
तब मुखिया पत्नी बोली"संत जी आप कल आईए,मैं अपने हाथों से अच्छी खीर बनाकर, भिक्षा दूंगी।"तब संत बोले"हां मैं आऊंगा।"बोलकर चल पड़े।
दूसरे दिन अपनी दिनचर्या अनुसार सही समय गांव में भिक्षा मांगने चल पड़े। रास्ते में एक गाय का बछड़ा खड्डे में गीला पड़ा देखा,तो संत जी दयालु थे, उन्होंने गांव के कुछ लोगों कि मध्य से खड्डे में से गाय को बाहर निकाला। और गांव वालों को धन्यवाद कहकर फिर भिक्षा मांगने चलते हुए जा रहे थे,तब रास्ते में एक बुढ़िया हाथ में एक छोटी सी पानी से भरा घाघर लेकर लड़खड़ाते हुए अपने घर कि तरफ जा रही थी।उसको देखकर संत जी उस बुढ़िया के पास आए और बोले "दादीजी आप , पानी से घाघरा मुझे दिजीए, मैं भी उसी तरफ़ जा रहां, वहां तक पहुंचा दूंगा।तब बुढ़िया ने हां कह दिया और घाघरा संत जी हाथ में दिया। बुढ़िया का घर आ गया।संत जी पानी से भरा घाघर बुढ़िया के कुटिया में जाकर रख दिया, और प्रणाम कर चल पड़े, लेकिन उस बुढ़िया ने संत जी को रोकते हुए बोली "मान्यवर आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आपने इस बुढ़ी कि सहायता की है तो , तुम्हें मैं खाली नहीं भेजुंगी।
मेरे घर जो आए ,वह तो अतिथि है। इसलिए मान्यवर आप मेरे हाथ कि एक रोटी खाना पड़ेगा। इससे अतिथि सत्कार भी होगा और इसके साथ आपने मेरी मदत की उसकी कृतज्ञता अर्पण हुआ।
संत जी बुढ़िया कि बातों को टाल न सके और रोटी को खाने बैठ गए। बुढ़िया ने अपने हाथों से गरमा गरम रोटी बनाकर ,उसे थोड़ी सी चटनी लगाकर दिया। संत जी ने रोटी खायी। "वाह, दादीजी आपके हाथ की रोटी तो बहुत स्वादिष्ट है। और अपने निर्मल भाव तथा प्यार से रोटी बनाई है।"संत जी ने कहा। दादीजी ने थोड़ा पानी दिया। संत जी दादी को दूर से पानी लाना पड़ता है, इसलिए उन्होंने सिर्फ दो घुंट पानी पीकर, दादीजी को धन्यवाद कहकर आगे चल पड़े, और मन में यह सोचकर चल पड़े कि मुखिया कि पत्नी राह देख रही होगी, वहां जाकर पानी पिया जाय।
मुखिया पत्नी संत जी राह देख रही थी। उसने संत जी को उस गरीब बुढ़िया के घर से आते हुए देख लिया था। हमारे घर न आते, संत जी उस बुढ़िया के घर गए हुए थे,इसका पद्मिनी को गुस्सा आया था।संत जी मुखिया के द्वार पर आए और बोले "माते, बहुत प्यास लगी है, थोड़ा सा पानी दो। मुखिया घर में ही थे। संत जी आवाज़ सुनकर मुखिया शिवानंद जी दरवाजे तक आ गए और प्रणाम करते हुए घर में आने की विनती की। संत जी अभी बहुत देर हो गयी है, फिर कभी आऊंगा।अब सिर्फ मूझे पीने थोड़ा पानी दिजिए। शिवानंद जी ने अपनी पत्नी को पानी लाने को कहा। पद्मिनी एक लोटे में पानी भरकर लायीऔर संत जी को दिया। संत जी उस पानी से भरे लोटे को लिया, और संत जी बोले "हे माते, आपने तो बहुत गर्म पानी दिया,इसे मैं केसे पी सकता हूं।"पद्मिनी को आश्चर्य हुआ, और देखा तो पानी बहुत ही गर्म था। फिर से दौड़कर अंदर जाकर दुसरे बर्तन में पानी लाया और संत शजी को दिया। संत जी पानी लिया।वह भी अधिक गर्म लगा। फिर से संत बोले "हे माते, और अधिक गर्म पानी क्यों दे रही हो।"मुखिया अचंभित हो गए और पत्नी को कहा"कर पद्मिनी यह क्या कर रही हो,जाओ पानी से भरा हुआ घाघर ही लेकर आओ।"
पद्मिनी फिर से अंदर चली गई और पानी से भरी घाघरा लेकर आयी और संत जी के सामने रखा।
संत जी घाघरा से पानी लेने लगे, तब भी उससे अधिक गर्म पानी था। मुखिया खशिवानंद जी खुद एक लोटा लेकर घाघरा में से पानी लेने लगे ,तो पानी बहुत गर्म देखकर, अरे पद्मिनी संत जी को गर्म पानी क्यों पिलाना चाहती हो ?
तब पद्मिनी शरमाते हुए बोली "जी नहीं, में डंडा पानी ही ला रही हूं लेकिन गर्म कैसे हो रहा है।यह मुझे भी नहीं मालुम पड रहा है।
संत जी मौन खड़े थे। मुखिया और उनकी पत्नी पद्मिनी दोनों ने संत जी के पैरों में नतमस्तक होकर माफी मांगने लगे। संत जी ने मुस्कुराते हुए बोले" मुखिया जी दोष पानी का नहीं बल्कि पानी लाकर देने वाले में दोष है। आपकी पत्नी अच्छी लेकिन उसमें थोड़ा घमंड है, यही घमंड, गुस्सा लाता है।" तो हे माते,जब तक तुम मुझे गुस्से में पानी दोगी ,तब तक मेरे लिए यह गर्म पानी ही होगा।जाओ अब तुम मुझे डंडे मन से पानी लेकर आओ।"
तब पद्मिनी पछतावा हुआ और इसका कारण भी समझ आया।अब पश्चाताप मन से अंदर जाकर, आपने शांत मन से पानी लाती। और संत जी दिया।अब पानी डंडा था। डंडा पानी पीकर तृप्त होकर बोले" हे माते, आपने कहा था,घर आकर उपन्यास करें, यही मेरा उपदेश था। आपको समझ आया।"आपका मन परिवर्तन हुआ इससे आपका
जीवन सुख शांति एवं समृद्ध हो, ऐसे कहकर,संत जी, अगले गांव की तरफ़ संचार के चल पड़े। मुखिया और उनकी पत्नी उनकी संत जी का अपने मन ही मन कृतज्ञता भाव से घर में आ गए।
"सत्संग से जीवन परिवर्तन -सुख , शांति तथा समृद्ध आनंदमय जीवन"
© आत्मेश्वर