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आधा सच?!
आधा सच पूरे झूठ के बराबर होता है।

"हैलो! जय बेटा पंद्रह दिन के लिए घर आ जाओ.. बहन का ब्याह है। ढेरों तैयारियाँ करनी हैं। काज परोज का मौका है। आके ज़रा हाथ बँटा दो तो थोड़ी राहत मिले। हम ठहरे लड़कीवाले.. बहुत काम है बेटा। आके सम्हाल लो.."

अपने कमरे में अकेला बैठा जय बीते दिनों की बातें याद कर रहा था। उसे बार-बार अपने पिता की कही ये बातें याद आ रहीं थीं।

जय एक पच्चीस वर्षीय नवयुवक था जिसने परास्नातक तक की शिक्षा ग्रहण कर रखी थी और बड़े शहर में ठहरकर संघ लोकसेवा आयोग के परीक्षाओं की तैयारियाँ कर रहा था जब उसे शहर से गांव वापस बुलाया गया। क्यों और कैसे? ये बातें अब आगे पता चलने वाली थीं।

जय का जन्म एक सुदूर ग्राम में हुआ था। माता बचपन में ही कैंसर के कारण चल बसीं तो पिता ने दूसरा विवाह ना करके बच्चों की परवरिश पर ही ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया और अपनी बूढ़ी माता के साथ मिलकर अपने चार बेटों और सबसे छोटी बेटी की परवरिश पालन-पोषण किया। जय चार भाइयों में सबसे छोटा था और सबसे छोटी बहन से बड़ा। पिता और दादी से अपनी उसका विशेष लगाव था फलस्वरुप दादी जो भी अच्छी काम की बातें उसे बतातीं एक आज्ञाकारी बालक की तरह वो सब फटाक से सीख जाता और उन बातों को अमल में लाता। दादी भी इस कारण आज्ञाकारी छोटे पोते से विशेष लाड रखतीं।
पढ़ाई में मेधावी जय दसवीं और बारहवीं में रिकॉर्ड नंबरों से पास हुआ था पूरे जिले में। वो भी तब जब उसे न्यून सुविधाएँ मिलीं थीं।...