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दिव्य-संवाद
दिव्य-संवाद
निर्जन वन का एकांत कोना,
कोइ खुसुर-फुसुर नहीं
चीखता चिल्लाता प्रेम
प्रथम स्त्री की वाणी,तत्पश्चात क्रमानुसार स्त्री-पुरूष
"कौन हो तुम"
अस्त व्यस्त जमीन पर अर्द्धनीद्रा में पडी स्त्री ने अधखुलें नेत्रों से ,पुरुष छवि की ओर एकटक देखते हुए कहा।

"पहलें आप स्वस्थ हो ले देवी"

भौचक स्त्री ने अपने नेत्र अपने मेहंदी लगे दोनों हाथों से मलते हुए पूछा,
"ये क्या कोइ स्वप्न है"
"नहीं देवी यथार्थ"
पुरुष ने अपनी बासुरी एक ओर रख दी
"क्या तुमने छल से मेरा सबकुछ ले लिया"
स्त्री बोली
पुनः प्रश्न
"कितने दिवस से मैं यहां हूँ"
अपने अस्त व्यस्त वस्त्रों ,आभूषणों को व्यवस्थित करती हुई नवयौवना उठ खड़ी हुई।
पुरुष भी उठ खड़ा हुआ,
स्त्री ने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया,अंधेरे में एक मात्र दिपक जल रहा था,
ये एक घास-फूस की कुटिया थी ,उसे अपनी सुध-बुध न थी,क्या हुआ था ,कब हुआ था,कैसें हुआ था उसे कुछ भी स्मरण न आ रहा था।
"तुम कुछ बोलते क्यों नहीं" स्त्री ने अपने पैर पटके।

"अपने मस्तिष्क पर जोर डालिये ,देवी आपको संपूर्ण स्मरण आ जाएगा,ये औषधि है इसका सेवन किजिए"

एक प्याली में कुछ आयुर्वेद का घोट बना हुआ सा था ,
स्त्री ने झपट्टा मारते हुए पुरुष के हाथ से प्याली छीन ली,और एक सुर में गटागट पी गई।

"मैं बाहर आपकी प्रतीक्षा करता हूँ"
उत्तर की प्रतिक्षा किए बिना ही पुरुष कुटिया से बाहर निकल गया।

स्त्री पीछे लपकी,"अरे सुनो तो,मैं तो परिहास कर रही थी ,मुझें सब स्मरण है"
"अच्छी बात है फिर ये बताओं मैं कौन हूँ" पुरुष ने कहा

कुटी के बाहर भोर की प्रथम लालिमा की चादर बिछी हुई थी,हर तरफ ,पक्षियों की चहचहाहट...