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फुदकी का परिवार
एक दिन की बात है मैं छत पर टहल रही थी वहां पर ठंडी ठंडी हवा भी चल रही थी
आकाश में बादल छाए हुए थे बिजली कड़क रही थी
तभी मेरी नजर एक पीपल के वृक्ष पर पड़ी वह पीपल का वृक्ष मेरे घर के समीप में खड़ा हुआ था उसके पास अशोक और खजूर ताड़ के भी वृक्ष भी खड़े हुए थे
पीपल के वृक्ष के ऊपर बंदरों का झुंड निवास करता था उस पर बंदरों के छोटे-छोटे बच्चे भी थे बंदरों के साथ में भी उछल कूद कर रहे थे
उन्हें देखकर ऐसा लगता था मानो छुपन छुपाई का खेल खेल रहे हो कहीं बंदरों के छोटे-छोटे बच्चे अपने साथियों की पूछ खींचते तो कहीं उधर उनकी इस शरारत भरी मस्ती को देखकर उनकी मां रेनी आर्यों फुदकी आकर अपने बच्चों के कान पड़कर प्यार भरे दो चपट् लगाती मानो ऐसा लगा मां अपने बच्चों को डांट रही हो
लेकिन वे फिर भी अपनी शरारत से बाज नहीं आते
बे अभी अशोक के वृक्ष पर चढ़कर उसकी टहनियों को हिलाते तो कभी पीपल के वृक्ष पर लगे झंडों को हिलाते
जब भी झंडे को हिलाते थे तो ऐसा लगता था मानो वह अपने परमपिता हनुमान को मना रहे हो
पीपल की पत्तियां तीव्र स्वर मैं झंझावात कर रही थी
मानो बंदरों के परमपिता हनुमान को मनाने के लिए बे मधुर स्वर में हवा भी संगीत गा रही है
हवा भी उन्हें मनाने के लिए बागों से फूलों की खुशबू लाकर पूरे वातावरण को ही महका रही थी
और झंडे में लगी घंटियां भी तीव्र धुन में बज रही थी हवा भी धीमे-धीमे स्वर में बहती हुई पूरे वातावरण को आनंदित कर रही थी पंछी भी वहां बैठकर कोलाहल कर रहे थे मानो वह अपने मीठे स्वर में गीत गा रहे हो
इस प्राकृतिक चित्रण को देखकर मेरा मन बड़ा प्रसन्न हो रहा था
मैं भी बड़ी उत्सुकता से देख रही थी इस प्रकार के चित्र से मेरी नजर हटाने का नाम ही नहीं ले रही थी
थोड़ी ही देर बाद कुछ बंदरों के झुंड धीरे-धीरे अपने स्थान पर चले जाते हैं और कुछ वहीं ठहर जाते हैं धीरे-धीरे शाम होने लगती है सूरज भी धीरे-धीरे छुप जाता है बंदर अपने-अपने बच्चों को लेकर सोने चले जाते हैं मेरी कलम भी विराम ले लेती है और इस तरह इस कहानी का अंत हो जाता है।। 😺
© Mamta