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"हफ्ते भऱ का दोस्त" Part-1


"हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा

बस बस साहब... पेट में दर्द होने लगा मेरे तो...

मुझे तो मज़ा आ गया आपसे बात करके, ज़िन्दगी का एकदम नया पहलु समझाया आपने...

हम जब बच्चे थे तो हमारे भी माँ बाप चाहते थे की हम भी डॉक्टर या इंजीनियर बने... और बन गए गाइड... अब अपना काम, अपने लिए और अपनी मर्ज़ी से ...

चलिए साहब, आप भी आराम कीजिये, कल सुबह निकलना भी होगा हमे 7:30 तक ... 11 बजे की ट्रेन है आपकी और नाश्ता वगैरह पैकिंग करवा के ले चलेंगे , ताकि ट्रेन में आप खा सके आराम से... ऐसे भगा दौड़ी में आप खा नहीं पाएंगे सही से... "

"और सुबह....???" साहिब बोले

"मैंने ब्रेड और मक्खन मंगवा लिया है, सुबह चाय के साथ लीजियेगा, और फिर हैवी नाश्ता ट्रेन में 11 बजे के बाद... "

और फिर वो लोग चले गए... मेरे इस हफ्ते का परिवार... मेरे भाई - भाभी... भतीजे - भतीजी...

"अरेह क्या हाल रेहमान चचा... लाओ १ हफ्ते से चाय नहीं पी आपकी… ऐसा लग रहा है जैसे दुनिया अधूरी - अधूरी सी दिख रही है..."

रेहमान चाचा - "हाँ भई, बातों का ही तो खाते हो.. लो तुम्हारी चाय और तुम्हारे कल आने वाले टूरिस्ट का नंबर..."

पर्ची देखते हुए मैं अवाक सा... "चाचा, आप भी... धंदा डाल लिए क्या..."

रेहमान चाचा - "कल एक टूरिस्ट की ट्रेन छूट गयी थी... और गाइड था अपना संतू... एक बार पैसे मिल गए उसके पूरे, फिर वो न मुंह लगाता है किसी को और ना पकड़ में आता है... एक दिन के होटल के 2500 सौ मांग रहा था... और बोल रहा था की इस से कम नहीं हो पायेगा... बच्चा भी छोटा था उनका... एक दम गोदी का... मुझे तरस आ गया... तो मैंने कह दिया, आप लोग अंदर आ जाओ... बच्चे को दूध गरम करके दे दिया और दोनों को चाय बिस्कुट..."

"हम्म्म... फिर..."

"फिर क्या... बोले ट्रेन छूट गयी है... और सीजन में कन्फर्म टिकट मिलना मुश्किल है... कहीं दूर के थे... शायद मुंबई के... फिर मैंने ही शाम को गाड़ी में बिठवा दिया... अपने स्टेशन मास्टर साहब से कहकर... निकलते वक़्त 500 रूपए दिये और एक पर्ची... कहा इसमें नंबर है वो मेरी साली है... किसी अच्छे गाइड से मिलवा दीजियेगा... ले फिर... पकड़ इसे..."

"अच्छा गाइड... हा हा हा हा हा हा हा हा.... मुझे क्यों दे रहे हो फिर... "

"क्यूंकि, तू उधार नहीं खाता मेरे यहाँ... और जब भी यहाँ होता है... यहीं खाता है... हा हा हा हा हा हा हा हा

नंबर मिला दिया मैंने... एक महिला की आवाज़ आयी... "हेलो"...

हाँ जी मैडम... गाइड बोल रहा हूँ... दीपक... आपके रिश्तेदार से नंबर मिला मुझे..."

"हाँ... हाँ... मेरे जीजा जी हैं वो... मैं कल सुबह आ रही हूँ... 9 बजे की ट्रैन है... मैं डिटेल्स मैसेज कर रही हूँ..."

"कितने लोग हैं मैडम... और गाड़ी कौन सी करनी है..."

"मैं अकेली हूँ... कोई छोटी गाड़ी चलेगी... सामान भी कम ही है..."

"अच्छा"... मैं बहुत सारे सवालों को मन में रोक के बोला... "आप आ जाइये पहले..."

अगले दिन प्लेटफार्म न. ३ पर आयी गाड़ी में कोच बी 1 सीट 33 पे मैं पहुंचा तो वो बस अपने स्पोर्ट्स शूज की लैस बाँध रही थी... एक तरफ के बालों से उसका चेहरा ढाका हुआ था और मैं उसके रेशमी बालों को ही देखता रहा और 2 पल बाद जब वो उठी तो उसने मेरी तरफ देखकर एक लम्बी से सांस ली...

"दीपक…???"

"जी"

"चलें"

"दीजिये बैग मुझे..." और बैग दे दिया और तभी ए.सी. कोच के बहार जो प्लेटफार्म पर उतरने का दरवाज़ा होता है, उसके कदम रुके, और उसने ज़ोर से मेरी बाँह पकड़ ली... और एक धड़धड़ाता हुआ रेलवे का शंटिंग इंजन वहां से अकेला निकल गया...
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