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"हिन्दी क्यों लिखूँ"
            हिन्दी क्यों लिखूँ?
     
     मैं,बचपन से हिन्दी पढ़-लिख रहा हूँ। बोलता भी हिन्दी ही हूँ। मतलब स्पष्ट है कि हिन्दी मेरी मातृ भाषा है। इस पर मुझे गर्व भी होना चाहिए। वही गर्व करते-करते आज तक हजारों रचनाएँ लिख चुका हूँ। लेकिन फिर भी लोग हँसते हुए जब यह कहते हैं कि लेखक महोदय आप तो छाए रहते हो सोशल मीडिया पर। अब तक तो उपन्यास,कहानी संग्रहों,काव्य संग्रहों से रॉयल्टी के रूप में आपकी महीने की लाखों की आमदनी होती होगी?
      तब मुझे यह स्वयं का उपहास कम और अपनी मातृभाषा का उपहास अधिक लगता है। लोग कहते हैं कि इतना कुछ यदि किसी  अंग्रेजी साहित्यकार ने लिखा होता तो वह अब तक करोड़ों का मालिक होता। तब मुझे हिन्दी के एक रचनाकार की दुर्दशा का भान होता है। सोचता हूँ साहित्यिक मंचों पर बैठे मठाधीशों में से किसी की नजर तो मेरे जैसे गुमनाम रचनाकारों पर पड़ेगी। लेकिन तब मुझे घोर निराशा होती है जब पक्षपातपूर्ण नजरों के आगे कौड़ियाँ हीरे के मोल बिक जाती है और असली हीरों पर हिन्दी के मठाधीश अपनी अँजुलियों से भर-भर की मिट्टी डाल देते हैं।
        कार्यालयों में हिन्दी पखवाड़ा मनाने और हिन्दी दिवस पर किसी प्रतियोगिता का आयोजन करने के बाद वर्ष के शेष तीन सौ इक्कावन दिनों तक हिन्दी अंग्रेजी की दासता झेलती रहती है। अधिकारियों द्वारा हिन्दी के बजाय अंग्रेजी भाषा का गुणगान एवं अंग्रेजी भाषा अपनाकर कार्यालयों की दक्षता बढ़ाए जाने के आदेश एवं निर्देश जारी करने से बची-खुची उम्मीद भी निराशा में बदलने को मजबूर हो जाती है।
       आज़कल सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों से हिन्दी भाषा के उन्नयन की बातें करने वाले भी कुछ कम निर्दयी नहीं हैं। जो काम कभी प्रकाशक करते थे वही अब ई-प्रकाशक बनकर किए जा रहे हैं। हिन्दी का रचनाकार रचना लिखे और अपनी रचनाओं के प्रकाशन के लिए इन नवोदय प्रकाशकों को भेंटस्वरूप पंजीयन शुल्क,प्रवेश शुल्क दे तो बात बनेगी। वरना बेगारी करने वालों की तरह चलाते रहो अपनी कलम। क्योंकि न तो कोई पाठक हिन्दी के रचनाकारों की लड़ाई लड़ता है और न कोई सरकार।
         ऐसे में बेचारा हिन्दी का रचनाकार जाए तो जाए कहाँ। वह हिन्दी भाषी होने के साथ-साथ एक रचनाकार होने पर भी गर्व करता है। अपनी रचनाओं पर भी उसे यदा-कदा गर्व होता है। लेकिन अन्ततः वह भी मेरी तरह यही सोचता है कि यह हिन्दी का सम्मान है या शोषण। मेरा देश तो अंग्रेजों से उन्नीस सौ सैंतालीस में स्वतन्त्र हो गया था। लेकिन मेरी मातृ भाषा आज भी अँग्रेजी भाषा की चेरी क्यों बनी हुई है। इस पराधीनता के बीच वह खुद से प्रश्न करता है कि जिस हिन्दी  से उसके रचनाकार को एक चवन्नी की उम्मीद नहीं है आखिर मैं वह हिन्दी क्यों लिखूँ?

भूपेन्द्र डोंगरियाल
14  सितम्बर 2020


© भूपेन्द्र डोंगरियाल