...

22 views

मन नहीं है।🍂
आज भी नदी बह रही है कल कल,
जिसके ऊपर से अक्सर गुजरता हूं मैं।
आज भी बन रहा सूर्य का धवल प्रतिबिंब,
जिसे रवि वासर पे जल अर्पण करता हूं।
आज भी किनारे पे खड़ा शिवालय,
मानो मेरी राह देख रहा हो।
पीपल मुझ तक नई कोमल कोपलें पहुंचा कर,
मानो मुझसे कुछ कह रहा हो।
लेकिन मेरा कुछ कहने का मन नही है।
आज नदी के साथ बहने का मन नहीं है।
रास्ते अक्षांदित हैं नए यौवन से भरे वृक्षों से,
जलते पथ संवेदनाएं व्यक्त कर रहे हैं।
कुछ पीछे छूट जा रहें है जीवन की गति में,
कुछ पथिक आगे निकल जा रहे हैं।
रस्तें चल रहें हैं बेशक मेरे साथ साथ,
मगर रास्तों पे चलने का मन नहीं है।
रास्तों से छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं है।
वास्ते मंजिल के है सब कुछ मगर,
मंजिल को मुझसे कोई वास्ता नहीं है।
साल भर की मेहनत घर ले जाते किसान,
सामने हैं कटे हुए खेत।
अनाज से भरी बैलगाड़ी,
पसीने का श्रृंगार, बदन पे चमचमाती रेत।
हाथ बढ़ रहे हैं गिरती गठरी थामने,
सबसे खूबसूरत नज़ारे हैं सामने।
कल्पना में खोई मेरी आंखों में,
वास्तविकताएं गुम हैं।
नजरें गुमशुम हैं, निहारने का मन नहीं है।
अनियमित लय में रोड पर सरपट दौड़ती गाडियां।
व्यस्तता में ठहराव की आवश्कता का अनुमोदन कर रहीं हैं।
शिखर का प्रलोभन देती ये शहर की ऊंची इमारतें,
सिग्नल की लाल बत्तियां मगर रुकने का प्रलोभन दे रही हैं।
श्रृष्टि संचालक भाव, प्रेम, जो ठहरा हुआ है मन में,
न जाने क्यों आज ठहर जाने का मन नहीं है।
© Prashant Dixit