"परिव्राजक"
राजप्रसाद में हलचल थी,मेहमानों की आवभगत में महाराज स्वयं कोइ कसर न छोड़ना चाहते थे,आज उनके जीवन की एक नई पारी की शुरुआत जो होने वाली थी,
संपूर्ण महल किसी दुल्हन की भातिं सजा था,नित्य प्रति लगने वाले दरबार को भी आज स्थगित कर दिया गया था,
संपूर्ण आरण्यक प्रदेश में महाराज के विवाहोत्सव की धूम मची थी,
दास दासियाँ दौड़ दौड़ कर एक एक आगंतुक को अर्घ्य, मद,मोदक हस्तांतरित करने में जुटे थे
नई नवेली दुल्हन के स्वागत हेतु एक से बढ़कर एक नवरत्न गीत संगीत की स्वर लहरियां बिखेर रहे थे,कोइ अपने नैनों के बाणों से आगंतुकों मेहमानों को छलनी कर रहा था तो कोइ सितार के तारों से सबको रिझा रहा था
इसी प्रकार आनंदोत्सव मनाते रात्रि अपनी जवानी की ओर अग्रसर हुई
जो जहां था वही मस्ती की निद्रा में लुढ़क गया,किसी को इतनी सुध न थी कि शयनकक्ष तक भी पहुंच सके,दास दासियाँ भी अपने हाथों में सुगंधित द्रव्य लिए हुए ही जहाँ तहाँ हीं सो गये
धीरे धीरे कदमों से महाराज अपनी तलवार संभाले,अंतःपुर की ओर चले,द्वार बंद था
कुण्डी खड़काने से पूर्व ही द्वार खुल गया,शायद भीतर से कुण्डी न लगाई गई थी ,भीतर गोलाकार सेज पर एक से बढ़कर एक पुष्प मालाओं की लडिय़ां लटकी हुई थी,
समूचे कक्ष से इत्र की महक आ रही थी,बहुत प्रकार के मसालों, जड़ी बुटियों से निर्मित धूर्म से समुचा कक्ष ऐसा प्रतित होता था जैसें आकाश से स्वयं बादल धरती पर उतर आए हो,नये नवेले जोड़े के स्वागत हेतु
महाराज को देखते ही सेज पर लंबा घूंघट काढ़े बैठी दुल्हन किसी चतुरंगिणी सेना के चतुर सैनिक की भांति उछलकर सेज से उतर गई,
चूडियों और अन्य स्वर्णाभरो की झनझनाहट से कक्ष गुंजायमान हो उठा लदी फदी दुल्हन एक ओर खड़ी हो गई,
सुंगधित तैल के दीये दिवारों में बने मोखलों में जल रहे थे
महाराज ने तलवार कमर से निकाल कर दिवार पर टांग दी मुकुट किरिट कुण्डल भी खोल डाले,केवल अंगवस्त्र और पिताम्बरी धारण किए उन्होंने ही कक्ष की शांति को भंग किया
"कैसी हो देवी,बहुत देर हमारी प्रतिक्षा करनी पड़ी ना,"
दुल्हन ने कुछ न कहा,झुक कर महाराज के चरण छूने चाहे,
सावधान महाराज ने दुल्हन को काधे से पकड़ अपनी बायी जंघा पर बिठा लिया,और स्वयं भी सेज पर विराजमान हो गये।
"अरे नहीं नहीं, ऐसा अनर्थ ना करो,देवी
लजाई शकुचाई दुल्हन किसी लाजवंती छुईमुई के पत्तियों की भांति सिमटकर महाराज के वक्षस्थल से चिपक गई
महाराज ने घूंघट उठाना चाहा,दुल्हन उनसे छिटककर सेज के दूसरें कोने पहुंच गई
महाराज की हँसी निकल गई
दुल्हन ने पास ही रखा दुग्ध का पात्र उठाकर महाराज की ओर बढाया,
महाराज ने हाथ बढाकर पुनः दुल्हन का हाथ पकड़ना चाहा,किंतु चतुर स्त्री ने बिना अंगुलियाँ छूए ही दुग्ध पकडा दिया
महाराज ने ताली बजाई
"वाह वाह,क्या बात है,स्वप्न में भी न सोचा था आपको हम पा सकेंगे, न जाने कितने प्रेमपत्र आपकों भेजे ,आपने एक का भी उत्तर न दिया फिर स्वयंवर में वरमाला मेरे ही गले क्यों डाली,वहां तो एक से बढ़कर एक राजा महाराज अपना हृदय हाथों मे लिए खड़े थे" महाराज ने पूछा
दुल्हन ने पहली बार अपनी सुरीली धीमी आवाज में कुछ कहा,कुछ सुनाई दिया कुछ नहीं
"लगता है आप हमसें रुष्ट है जरा ये चाँद से मुखड़े का दर्शन तो करा दिजिए" महाराज बोले
दोनों नवदम्पति एक दूजे के संमुख आ गये
महाराज ने घूंघट उठाया
दुल्हन का चेहरे पर नजर पडते ही बिदक कर सेज से उठ बैठें,
"विरहिणी तू" महाराज चीखें
दुल्हन ने भी महाराज के चेहरे पर नजर डाली और सेज से उतर गई
"परित्यक्त तू"
"तू वहीं है ना जो रोज रात विरह के गीत गाया करती है ,और आखेट में मेरे द्वारा मारे गये शिकार लूट लेती है,इस प्रकार छल का क्या प्रयोजन" महाराज के माथे पर पसिने की बूंद उमड़ आई
"तू भी तो वही परित्यक्त है ना जो अपने दुराग्रह में वन के अबोध अबोले निरीह प्राणियों के हृदय में अपने विषभरे बाण मार उन्हें छलनी कर देता है" दुल्हन भी लगभग चिखते हुए बोली
दोनों ने एक दूसरे के नेत्रों में झाका
अगले ही क्षण किसी लता की भांति एक दुसरे से लिपट गये
अद्भुत दृश्य था लगता था जैसे चार पैरों वाला दो जिस्म एक जान खड़े है
मात्र क्षण के हजारवें हिस्से में दोनों एक दूसरे से विलग हो गये
महाराज ने दिवार पर टंगे म्यान से अपनी तलवार खिच ली,
अंतःपुर की दरों दिवार तक सहम गई
"आज तू पकड़ में आई है आज तू न बचेगी,तूने मुझें पागल कहा,विक्षिप्त कहा,मूर्ख और न जाने क्या क्या,आज सबका बदला लेगा परित्यक्त"
दुल्हन घूटनो के बल महल के तल पर बैठ गई
"लिजिए गला उतार लिजिए,अपने आखेट किए हुए मृग बारहसिंगे,व्याघ्रचर्म सब ले लिजिए, आपके द्वारा चलाए गये एक एक बाण तक सहेज रखे है मैंने वो सब मैं अपने जहेज में लाई हूँ,आप तनिक संकोच न किजिए ,चलाईये तलवार, रुक क्यों गये"
महाराज तलवार एक ओर फैक दुल्हन के सामने ही पालथी मार भूतल पर ही बैठ गये
"इतना बडा धोखा,इतना बडा छल,तेरा नाम धोखा रख दूँ नाराज तो न होओगी"
"रख दिजिए, मार डालिए मुझें, नहीं जिवीत रहना मुझें, ना आपसे दूर जाने का मन करता है ना पास आने का ,हम कितने मजबूर है आप क्या जानों, वैसे भी धोखा नाम कोइ उतना बुरा नहीं"
महाराज की आँखें भर आई,आवाज कण्ठ में रह गई
"क्यों किया तुमने ऐसा,क्यों मेरे स्वाभिमान को ललकारा, क्यों दिखाये ऐसे दिवास्वप्न जो कभी पूरे न हो सकते,क्यों क्यो क्यो"
कहते है जो होता है अच्छे के लिए होता है लेकिन यहाँ तो कुछ भी अच्छा न दिख रहा था,अर्धरात्रि में जब संपूर्ण जनपद निद्रा के मीठे रसास्वादन में निमग्न था ये दोनों आत्माएं एक दूसरें को लांछित अपमानित और कचोटने में जुटे थे
महाराज ने दुल्हन का हाथ झटका और उठ कर खड़े हो गये,दुल्हन भी भय से थर थर काँपती खड़ी हो गई
महाराज ने एक बार जमीन पर पड़ी नंगी तलवार पर दृष्टि डाली और दूसरी ओर भयातुर दुल्हन के अंग प्रत्यंग पर
अगले ही क्षण पुष्पों को रौदते कुचलते अंतःपुर से बाहर आ गये
ब्रह्ममुहूर्त की बेला थी,दूर कही से मंदिर के घंटे घड़ियालों की ध्वनि आ रही थी
सिंहद्वार के द्वारपाल जग गये,संपूर्ण महल में कोलाहल मच गया,कब क्या हुआ किसी को कुछ पता न चला
अंतःपुर की दास दासियाँ भी जग गई, एक दूसरे में कानाफूसिया होने लगी,
मेहमान भी अकबकाए से खड़े थे,किसी को कुछ समझ न आ रहा था,क्या कोइ झगड़ा हुआ,क्या दुल्हन ने कुछ कहा,
महाराज के मुखमंडल क़ देख किसी की हिम्मत न हुई की जाकर पूछ सके,
महाराज एकटक बस धरती को घूरे जा रहे थे जैसे अभी जलाकर भस्म कर देंगे
सुहाग की रात विरह की रात में तब्दील हो गई, धीरे धीरे कदमों से महाराज सिंहद्वार से बाहर निकल आए ,
काटो तो खूं नहीं की स्थिति थी
कहा जाना था ,कहा जा रहे थे,क्यों चले गये,किसी को कुछ पता नहीं
क्रमशः
बहुत दिन व्यतीत हो गये
महल ऐसा लगता था जैसे अक्सर भूतिया फिल्मों में दिखाया जाता है अंधकार में डूबा,डरावना ,जब दिल खाली हो तो कोइ फर्क नहीं पडता,उसमें कौन रहता है
शनैः शनैः महल और आरण्य का अंतर भी समाप्त होने लगा,आसपास के जंगलों ने अतिक्रमण प्रारंभ कर दिया,बहुत सारे झाड़ झंखाड़ महल की दिवारों पर उग आए थे,लताए महल के शिखर तक पहुंच गई, महाराज का कुछ पता न चला
दास दासियाँ भी महल छोड़ कर चली गई, धन वैभव संपदा सबकुछ अस्त व्यस्त हो गया,जहाँ कभी आनंद की वर्षा न रुकती थी आज केवल धूल के बवंडर उठा करते थे
मात्र एक अंतरंग दासी रह गई जो महारानी के साथ ही उनके मायके से आई थी कुमुद
दिनभर महारानी को समझाती ,आप प्रतिक्षा त्याग दें सखी,महाराज अब कदाचित ही वापस लौटे
महारानी कुछ न बोलती ,भोजन की थाली सामने रखी जाती और पुनः उठा ली जाती ज्यों की त्यों
ऐसा लगता जैसें जड़वत संगेमरमर शिला शादी के जोड़े में तपस्या रत बैठी हो,मकड़ियों ने महल के भीतरी हिस्सों के साथ महारानी की सेज तक जाले बुन दिए।
महारानी टस से मस न हुई,लगता समाधिस्थ कोइ योगी पालथी मारे बैठा हो नेत्र खुले थे और एकटक भवन के दरवाजे की ओर देखते थे।
कुमुद सामने ही बैठी रहती इस भयावह दृश्य की साक्षी स्वरूप बन कर।
ऐसा नहीं है कि महाराज की तलाश न हुई देश विदेश तक उनका कुछ पता न चला,और अंततः थकहार कर सभी दरबारी मंत्री गण महाराज के जाने के बाद एक एक कर महल छोड़ गये
एक पहर रात्रि बाकी थी किसी खड़ाऊँ के पदचाप से महल का गलियारा गुंज रहा था चटाक चटाक
चटाकी की आवाज सुन कुमुद सावधान हो गई
"कौन है कौन है" कुमुद ने आवाज लगाई
कोइ प्रतिउत्तर न मिला पदचाप अनवरत समीप आते जा रहे थे
ठीक महारानी के द्वार पर आकर आवाज आनी बंद हो गई ,
कुमुद ने धीरे से द्वार सरकाया ,बडे़ बड़े जटाजूट बढाए कोइ भगवाधारी था
"द्वार खोलों देवी भिक्षुक है" कुमुद को एक क्षण भी न लगा पहचानने में,महाराज की आवाज थी
दौड़ कर महारानी के समीप गई ,
"महारानी साहिबा,देखो देखो द्वार पर कौन आया है"
कुमुद की आवाज सुन महारानी की जड़वत देह में हलचल हुई
बेहद सधे कदमों से महारानी द्वार की ओर बढ़ी
चलने भर की शक्ति भी उनमें न बची थी,जीर्ण शीर्ण कृषकाय शरीर लिए द्वार के किवाड़ों का सहारा लिए महारानी खड़ी हो गई
मानो कह रही हो अब क्या आए हो लेने ,सबकुछ तो समाप्त कर के गये थे अपने ही हाथों अपनी ही चिता को अग्नि में झोकने के बाद अब क्या भभूत लेने आए हो?
"कौन हो तुम" जैसे कुएँ के भीतर से ध्वनि गुंजी
द्वार खड़े भीक्षुक ने सामने झोली फैला दी
"भवति भिक्षाम देही" राजमहल की कमजोर पड चुकी दिवारें भिक्षुक की आवाज से थरथरा उठी,कुमुद का मुर्छित शरीर जमीन पर लुढ़क गया
किवाड़ थामें स्त्री ने घूंघट काढ़ लिया वैसे ही जैसा सुहागरात की रात्रि स्त्रियां काढ़ लिया करती है।
भिक्षुक ने पलक भी न उठाई जमीन को देखते हुए ही पुनः आवाज लगाई
"भवती भिक्षाम देही,सुना है कल जन्माष्टमी के अवसर पर खिर बनी थी वही मिल जाता प्रसाद स्वरूप"
"नहीं मिलेगा,कोइ और द्वार देखों महात्मन" महारानी ने कहा
"भवति भिक्षाम देही,क्या एक उतरन भी न मिल सकेगी देवी" भिक्षुक ने पुनः प्रश्न किया
"कुछ न मिलेगा,लौट जाओ भिक्षुक" महारानी ने रोष भरे स्वर में कहा ,महारानी की आँखों से आँसू टपक पड़े ,नेत्र पोछते हुए द्वार बंद कर दिया
भिक्षुक द्वार पर आवाज लगाता ही रहा
थोड़ी देर बाद द्वार पुनः खुला
महारानी ने उदित सुर्य की भातिं वस्त्र धारण किए हुए थे गले में तुलसी माला थी माथे पर सिंदूर की जगह रक्तचंदन ,और मुखमंडल पर चंद्रमा की भांति चमक
भिक्षुक द्वार से परे हट गया
महारानी के हाथों में वही लाल जोड़ा था जिसे उन्होंने अपने विवाह में धारण कर रखा था
बिना कुछ कहे उतरन भिक्षुक की ओर उछालती हुई महारानी ने देहरी लांघ दी
जर्जर किवाड़ चौखट समेत उखड़कर धराशायी हो गया
भिक्षुक ने लपक कर लाल जोड़ा थाम लिया
आगे आगे महारानी थी और उनके पिछे गिरती पड़ती उनकी दासी कुमुद लगभग दौड़ते हुए और सबसे पिछे भिक्षुक
ऐसा लगता था जैसे त्याग और बलिदान की प्रतियोगिता चल रही हो
सारे किरदार एक दूजे को पराजित करने पर तुले हुए थे
कह दो प्रेम नहीं चले जाएंगे, जो रख लिया है अंतःस्थल में लौटा दो उसे चले जाएंगे।
समाप्त:-
🤡🤡🤡
© सौमित्र
संपूर्ण महल किसी दुल्हन की भातिं सजा था,नित्य प्रति लगने वाले दरबार को भी आज स्थगित कर दिया गया था,
संपूर्ण आरण्यक प्रदेश में महाराज के विवाहोत्सव की धूम मची थी,
दास दासियाँ दौड़ दौड़ कर एक एक आगंतुक को अर्घ्य, मद,मोदक हस्तांतरित करने में जुटे थे
नई नवेली दुल्हन के स्वागत हेतु एक से बढ़कर एक नवरत्न गीत संगीत की स्वर लहरियां बिखेर रहे थे,कोइ अपने नैनों के बाणों से आगंतुकों मेहमानों को छलनी कर रहा था तो कोइ सितार के तारों से सबको रिझा रहा था
इसी प्रकार आनंदोत्सव मनाते रात्रि अपनी जवानी की ओर अग्रसर हुई
जो जहां था वही मस्ती की निद्रा में लुढ़क गया,किसी को इतनी सुध न थी कि शयनकक्ष तक भी पहुंच सके,दास दासियाँ भी अपने हाथों में सुगंधित द्रव्य लिए हुए ही जहाँ तहाँ हीं सो गये
धीरे धीरे कदमों से महाराज अपनी तलवार संभाले,अंतःपुर की ओर चले,द्वार बंद था
कुण्डी खड़काने से पूर्व ही द्वार खुल गया,शायद भीतर से कुण्डी न लगाई गई थी ,भीतर गोलाकार सेज पर एक से बढ़कर एक पुष्प मालाओं की लडिय़ां लटकी हुई थी,
समूचे कक्ष से इत्र की महक आ रही थी,बहुत प्रकार के मसालों, जड़ी बुटियों से निर्मित धूर्म से समुचा कक्ष ऐसा प्रतित होता था जैसें आकाश से स्वयं बादल धरती पर उतर आए हो,नये नवेले जोड़े के स्वागत हेतु
महाराज को देखते ही सेज पर लंबा घूंघट काढ़े बैठी दुल्हन किसी चतुरंगिणी सेना के चतुर सैनिक की भांति उछलकर सेज से उतर गई,
चूडियों और अन्य स्वर्णाभरो की झनझनाहट से कक्ष गुंजायमान हो उठा लदी फदी दुल्हन एक ओर खड़ी हो गई,
सुंगधित तैल के दीये दिवारों में बने मोखलों में जल रहे थे
महाराज ने तलवार कमर से निकाल कर दिवार पर टांग दी मुकुट किरिट कुण्डल भी खोल डाले,केवल अंगवस्त्र और पिताम्बरी धारण किए उन्होंने ही कक्ष की शांति को भंग किया
"कैसी हो देवी,बहुत देर हमारी प्रतिक्षा करनी पड़ी ना,"
दुल्हन ने कुछ न कहा,झुक कर महाराज के चरण छूने चाहे,
सावधान महाराज ने दुल्हन को काधे से पकड़ अपनी बायी जंघा पर बिठा लिया,और स्वयं भी सेज पर विराजमान हो गये।
"अरे नहीं नहीं, ऐसा अनर्थ ना करो,देवी
लजाई शकुचाई दुल्हन किसी लाजवंती छुईमुई के पत्तियों की भांति सिमटकर महाराज के वक्षस्थल से चिपक गई
महाराज ने घूंघट उठाना चाहा,दुल्हन उनसे छिटककर सेज के दूसरें कोने पहुंच गई
महाराज की हँसी निकल गई
दुल्हन ने पास ही रखा दुग्ध का पात्र उठाकर महाराज की ओर बढाया,
महाराज ने हाथ बढाकर पुनः दुल्हन का हाथ पकड़ना चाहा,किंतु चतुर स्त्री ने बिना अंगुलियाँ छूए ही दुग्ध पकडा दिया
महाराज ने ताली बजाई
"वाह वाह,क्या बात है,स्वप्न में भी न सोचा था आपको हम पा सकेंगे, न जाने कितने प्रेमपत्र आपकों भेजे ,आपने एक का भी उत्तर न दिया फिर स्वयंवर में वरमाला मेरे ही गले क्यों डाली,वहां तो एक से बढ़कर एक राजा महाराज अपना हृदय हाथों मे लिए खड़े थे" महाराज ने पूछा
दुल्हन ने पहली बार अपनी सुरीली धीमी आवाज में कुछ कहा,कुछ सुनाई दिया कुछ नहीं
"लगता है आप हमसें रुष्ट है जरा ये चाँद से मुखड़े का दर्शन तो करा दिजिए" महाराज बोले
दोनों नवदम्पति एक दूजे के संमुख आ गये
महाराज ने घूंघट उठाया
दुल्हन का चेहरे पर नजर पडते ही बिदक कर सेज से उठ बैठें,
"विरहिणी तू" महाराज चीखें
दुल्हन ने भी महाराज के चेहरे पर नजर डाली और सेज से उतर गई
"परित्यक्त तू"
"तू वहीं है ना जो रोज रात विरह के गीत गाया करती है ,और आखेट में मेरे द्वारा मारे गये शिकार लूट लेती है,इस प्रकार छल का क्या प्रयोजन" महाराज के माथे पर पसिने की बूंद उमड़ आई
"तू भी तो वही परित्यक्त है ना जो अपने दुराग्रह में वन के अबोध अबोले निरीह प्राणियों के हृदय में अपने विषभरे बाण मार उन्हें छलनी कर देता है" दुल्हन भी लगभग चिखते हुए बोली
दोनों ने एक दूसरे के नेत्रों में झाका
अगले ही क्षण किसी लता की भांति एक दुसरे से लिपट गये
अद्भुत दृश्य था लगता था जैसे चार पैरों वाला दो जिस्म एक जान खड़े है
मात्र क्षण के हजारवें हिस्से में दोनों एक दूसरे से विलग हो गये
महाराज ने दिवार पर टंगे म्यान से अपनी तलवार खिच ली,
अंतःपुर की दरों दिवार तक सहम गई
"आज तू पकड़ में आई है आज तू न बचेगी,तूने मुझें पागल कहा,विक्षिप्त कहा,मूर्ख और न जाने क्या क्या,आज सबका बदला लेगा परित्यक्त"
दुल्हन घूटनो के बल महल के तल पर बैठ गई
"लिजिए गला उतार लिजिए,अपने आखेट किए हुए मृग बारहसिंगे,व्याघ्रचर्म सब ले लिजिए, आपके द्वारा चलाए गये एक एक बाण तक सहेज रखे है मैंने वो सब मैं अपने जहेज में लाई हूँ,आप तनिक संकोच न किजिए ,चलाईये तलवार, रुक क्यों गये"
महाराज तलवार एक ओर फैक दुल्हन के सामने ही पालथी मार भूतल पर ही बैठ गये
"इतना बडा धोखा,इतना बडा छल,तेरा नाम धोखा रख दूँ नाराज तो न होओगी"
"रख दिजिए, मार डालिए मुझें, नहीं जिवीत रहना मुझें, ना आपसे दूर जाने का मन करता है ना पास आने का ,हम कितने मजबूर है आप क्या जानों, वैसे भी धोखा नाम कोइ उतना बुरा नहीं"
महाराज की आँखें भर आई,आवाज कण्ठ में रह गई
"क्यों किया तुमने ऐसा,क्यों मेरे स्वाभिमान को ललकारा, क्यों दिखाये ऐसे दिवास्वप्न जो कभी पूरे न हो सकते,क्यों क्यो क्यो"
कहते है जो होता है अच्छे के लिए होता है लेकिन यहाँ तो कुछ भी अच्छा न दिख रहा था,अर्धरात्रि में जब संपूर्ण जनपद निद्रा के मीठे रसास्वादन में निमग्न था ये दोनों आत्माएं एक दूसरें को लांछित अपमानित और कचोटने में जुटे थे
महाराज ने दुल्हन का हाथ झटका और उठ कर खड़े हो गये,दुल्हन भी भय से थर थर काँपती खड़ी हो गई
महाराज ने एक बार जमीन पर पड़ी नंगी तलवार पर दृष्टि डाली और दूसरी ओर भयातुर दुल्हन के अंग प्रत्यंग पर
अगले ही क्षण पुष्पों को रौदते कुचलते अंतःपुर से बाहर आ गये
ब्रह्ममुहूर्त की बेला थी,दूर कही से मंदिर के घंटे घड़ियालों की ध्वनि आ रही थी
सिंहद्वार के द्वारपाल जग गये,संपूर्ण महल में कोलाहल मच गया,कब क्या हुआ किसी को कुछ पता न चला
अंतःपुर की दास दासियाँ भी जग गई, एक दूसरे में कानाफूसिया होने लगी,
मेहमान भी अकबकाए से खड़े थे,किसी को कुछ समझ न आ रहा था,क्या कोइ झगड़ा हुआ,क्या दुल्हन ने कुछ कहा,
महाराज के मुखमंडल क़ देख किसी की हिम्मत न हुई की जाकर पूछ सके,
महाराज एकटक बस धरती को घूरे जा रहे थे जैसे अभी जलाकर भस्म कर देंगे
सुहाग की रात विरह की रात में तब्दील हो गई, धीरे धीरे कदमों से महाराज सिंहद्वार से बाहर निकल आए ,
काटो तो खूं नहीं की स्थिति थी
कहा जाना था ,कहा जा रहे थे,क्यों चले गये,किसी को कुछ पता नहीं
क्रमशः
बहुत दिन व्यतीत हो गये
महल ऐसा लगता था जैसे अक्सर भूतिया फिल्मों में दिखाया जाता है अंधकार में डूबा,डरावना ,जब दिल खाली हो तो कोइ फर्क नहीं पडता,उसमें कौन रहता है
शनैः शनैः महल और आरण्य का अंतर भी समाप्त होने लगा,आसपास के जंगलों ने अतिक्रमण प्रारंभ कर दिया,बहुत सारे झाड़ झंखाड़ महल की दिवारों पर उग आए थे,लताए महल के शिखर तक पहुंच गई, महाराज का कुछ पता न चला
दास दासियाँ भी महल छोड़ कर चली गई, धन वैभव संपदा सबकुछ अस्त व्यस्त हो गया,जहाँ कभी आनंद की वर्षा न रुकती थी आज केवल धूल के बवंडर उठा करते थे
मात्र एक अंतरंग दासी रह गई जो महारानी के साथ ही उनके मायके से आई थी कुमुद
दिनभर महारानी को समझाती ,आप प्रतिक्षा त्याग दें सखी,महाराज अब कदाचित ही वापस लौटे
महारानी कुछ न बोलती ,भोजन की थाली सामने रखी जाती और पुनः उठा ली जाती ज्यों की त्यों
ऐसा लगता जैसें जड़वत संगेमरमर शिला शादी के जोड़े में तपस्या रत बैठी हो,मकड़ियों ने महल के भीतरी हिस्सों के साथ महारानी की सेज तक जाले बुन दिए।
महारानी टस से मस न हुई,लगता समाधिस्थ कोइ योगी पालथी मारे बैठा हो नेत्र खुले थे और एकटक भवन के दरवाजे की ओर देखते थे।
कुमुद सामने ही बैठी रहती इस भयावह दृश्य की साक्षी स्वरूप बन कर।
ऐसा नहीं है कि महाराज की तलाश न हुई देश विदेश तक उनका कुछ पता न चला,और अंततः थकहार कर सभी दरबारी मंत्री गण महाराज के जाने के बाद एक एक कर महल छोड़ गये
एक पहर रात्रि बाकी थी किसी खड़ाऊँ के पदचाप से महल का गलियारा गुंज रहा था चटाक चटाक
चटाकी की आवाज सुन कुमुद सावधान हो गई
"कौन है कौन है" कुमुद ने आवाज लगाई
कोइ प्रतिउत्तर न मिला पदचाप अनवरत समीप आते जा रहे थे
ठीक महारानी के द्वार पर आकर आवाज आनी बंद हो गई ,
कुमुद ने धीरे से द्वार सरकाया ,बडे़ बड़े जटाजूट बढाए कोइ भगवाधारी था
"द्वार खोलों देवी भिक्षुक है" कुमुद को एक क्षण भी न लगा पहचानने में,महाराज की आवाज थी
दौड़ कर महारानी के समीप गई ,
"महारानी साहिबा,देखो देखो द्वार पर कौन आया है"
कुमुद की आवाज सुन महारानी की जड़वत देह में हलचल हुई
बेहद सधे कदमों से महारानी द्वार की ओर बढ़ी
चलने भर की शक्ति भी उनमें न बची थी,जीर्ण शीर्ण कृषकाय शरीर लिए द्वार के किवाड़ों का सहारा लिए महारानी खड़ी हो गई
मानो कह रही हो अब क्या आए हो लेने ,सबकुछ तो समाप्त कर के गये थे अपने ही हाथों अपनी ही चिता को अग्नि में झोकने के बाद अब क्या भभूत लेने आए हो?
"कौन हो तुम" जैसे कुएँ के भीतर से ध्वनि गुंजी
द्वार खड़े भीक्षुक ने सामने झोली फैला दी
"भवति भिक्षाम देही" राजमहल की कमजोर पड चुकी दिवारें भिक्षुक की आवाज से थरथरा उठी,कुमुद का मुर्छित शरीर जमीन पर लुढ़क गया
किवाड़ थामें स्त्री ने घूंघट काढ़ लिया वैसे ही जैसा सुहागरात की रात्रि स्त्रियां काढ़ लिया करती है।
भिक्षुक ने पलक भी न उठाई जमीन को देखते हुए ही पुनः आवाज लगाई
"भवती भिक्षाम देही,सुना है कल जन्माष्टमी के अवसर पर खिर बनी थी वही मिल जाता प्रसाद स्वरूप"
"नहीं मिलेगा,कोइ और द्वार देखों महात्मन" महारानी ने कहा
"भवति भिक्षाम देही,क्या एक उतरन भी न मिल सकेगी देवी" भिक्षुक ने पुनः प्रश्न किया
"कुछ न मिलेगा,लौट जाओ भिक्षुक" महारानी ने रोष भरे स्वर में कहा ,महारानी की आँखों से आँसू टपक पड़े ,नेत्र पोछते हुए द्वार बंद कर दिया
भिक्षुक द्वार पर आवाज लगाता ही रहा
थोड़ी देर बाद द्वार पुनः खुला
महारानी ने उदित सुर्य की भातिं वस्त्र धारण किए हुए थे गले में तुलसी माला थी माथे पर सिंदूर की जगह रक्तचंदन ,और मुखमंडल पर चंद्रमा की भांति चमक
भिक्षुक द्वार से परे हट गया
महारानी के हाथों में वही लाल जोड़ा था जिसे उन्होंने अपने विवाह में धारण कर रखा था
बिना कुछ कहे उतरन भिक्षुक की ओर उछालती हुई महारानी ने देहरी लांघ दी
जर्जर किवाड़ चौखट समेत उखड़कर धराशायी हो गया
भिक्षुक ने लपक कर लाल जोड़ा थाम लिया
आगे आगे महारानी थी और उनके पिछे गिरती पड़ती उनकी दासी कुमुद लगभग दौड़ते हुए और सबसे पिछे भिक्षुक
ऐसा लगता था जैसे त्याग और बलिदान की प्रतियोगिता चल रही हो
सारे किरदार एक दूजे को पराजित करने पर तुले हुए थे
कह दो प्रेम नहीं चले जाएंगे, जो रख लिया है अंतःस्थल में लौटा दो उसे चले जाएंगे।
समाप्त:-
🤡🤡🤡
© सौमित्र