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चवन्नी की कॉमिक्स
उन दिनों टेलीविज़न और दूरदर्शन का लुफ्त उठाना सबके लिए सहज नहीं होता था और इसी बात की कमी को हमारी एक दूसरी दुनिया पूरा कर दिया करती थी और वह थी हमारी अपनी - "कॉमिक्स और बाल पत्रिकाओं की दुनिया"

अक्सर मुझे वो दिन याद आ जाते हैं जब शाम ढलते ही सीधा सीताराम लाइब्रेरी जाया करता था और गोवर्धन भैया ४-५ कॉमिक्स की गड्डियां मेरे सामने रख देते थे । उनमें से मैं जिनको पढ़ चुका होता अलग रख देता और मेरे हिसाब से जिन कॉमिक्स के टाइटल नए और मेरे पसंदीदा चरित्रों वाले होते उन्हें चवन्नी प्रतिदिन किराए के हिसाब से पढ़ने के लिए घर ले आता था । ऐसे तो दो चार और भी लाइब्रेरी थी शहर में मगर जो बात गोवर्धन भैया की सीताराम लाइब्रेरी में थी वो किसी और में नहीं थी । एक तो घर के नजदीक और बिल्कुल हमारे स्कूल "बाल विद्यापीठ " के करीब और ऊपर से गोवर्धन भैया और उनके सभी परिवार वालों का शालीनता पूर्ण व्यव्हार । वह केवल लाइब्रेरी नहीं बल्कि हमारे लिए एक वटवृक्ष की तरह था जिसकी छाव में हमारे बचपन की कौतूहलता पली - बढ़ी । वह केवल कॉमिक्स और चवन्नी का रिश्ता भर नहीं था बल्कि कुछ और ही था जिनकी जड़ें आज भी उन यादों का पोषण करती हैं । लाइब्रेरी के सामने शो केस में "इन्द्र की हार" वाली डाइजेस्ट की तस्वीर आज भी ताज़ी है । डाइजेस्ट का भाड़ा कॉमिक्स से ज्यादा था तो...