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नेताजी का चश्मा
हलदार साहब को हर 15वें दिन कंपनी के काम के सिलसिले में उसे कस्बे से गुजरना पड़ता था। कस्बा बहुत बड़ा नहीं था। जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसा ही कुछ मकान और जिसे बाजार कहा जा सके वैसा ही कुछ बाजार था। कस्बे में एक लड़कों का स्कूल और एक लड़कियों का स्कूल एक सीमेंट का छोटा सा कारखाना दो ओपन एयर सिनेमा घर और एक तो नगर पालिका भी थी। नगर पालिका थी तो कुछ ना कुछ करती ही रहती थी। कभी कोई सड़क पक्की करवा दे कभी कुछ पेशाब घर बनवा दिए कभी कबूतरों की छतरी बनवा दी तो कभी-कभी सम्मेलन करवा दिया इसी नगर पालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार शहर में के मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर नेताजी में सुभाष चंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। यह कहानी इस प्रतिमा के बारे में है बल्कि उसके भी एक छोटे से हिस्से के बारे में। पूरी बात तो अब पता नहीं लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज्यादा होने के कारण काफी समय उहापोह और चिट्ठी पत्री में बर्बाद हुआ होगा। और बोर्ड की एक शासनवधी समाप्त होने की गाड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को यही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा और अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर मान लीजिए मोती लाल जी को ही यह काम सौंप दिया गया होगा जो महीने भर में मूर्ति बनाकर पाटक देने का विश्वास दिला रहे थे। जैसे ही कहा जा चुका है मोटी संगमरमर की थी। टोपी की नोक से कोर्ट के दूसरे बटन तक कोई तो फुट ऊंची। जिसे कहते हैं बस्ट। और सुंदर थी। नेताजी सुंदर लग रहे थे। कुछ-कुछ मासूम और कमसिन। फौजी वर्दी में। मूर्ति को देखते ही दिल्ली चलो और तुम मुझे खून दो वगैरा याद आने लगते थे। इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय प्रयास था। केवल एक चीज की कसर थी जो देखते ही खटकती थी। नेताजी की आंखों पर चश्मा नहीं था। यानी चश्मा तो था लेकिन संगमरमर का नहीं था। एक सामान्य और सचमुच के चश्मे का चौड़ा कल फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हलदर साहब जब पहली बार इस करने से गुजरे और चौराहे पर पान खाने रुके तभी उन्होंने इसे लक्षित किया और उनके चेहरे पर एक कौतुक भरी मुस्कान फैल गई। वह भाई एक या आइडिया भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की लेकिन चश्मा रियल। जीप कस्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हलदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोच रहे थे और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचे की कुल मिलाकर कस्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनी ही कहा जाना चाहिए। महात्मा मोती के रंग रूप या कद का नहीं उसे भावना का है वर्णन तो देशभक्त भी आजकल मजाक की चीज होती जा रही है। दूसरी बार जब हलदर साहब उधर से गुजरे तो होने मूर्ति में कुछ अंतर दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो पाया कि चश्मा दूसरा है। पहले मोटे फ्रेम का चौकोर चश्मा। पहले मोटे फ्रेम का चौकोर चश्मा था अब तार के फ्रेम वाला गोल चश्मा है हलदार साहब का कौतुक वाह भाई क्या आईडिया है मूर्ति कपड़े भी नहीं बदल सकती लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है। तीसरी बार फिर नया चश्मा था। हलदार साहब की आदत पड़ गई। हर बार कस्बे से गुजरते समय चौराहे पर रुकना, पान खाना और मोती को ध्यान से देखना। एक बार जब कौतूहल दर्दमनिया हो उठा तो पानी वाले से ही पूछ लिया क्यों भाई क्या बात है? यह तुम्हारा नेता जी का चश्मा हर बार बादल कैसे जाता है? पान वाले ने खुद के मुंह में पान ठोस हुआ था वह एक कला मोटा और खुशमिजाज आदमी था हलदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आंखो ही आंखो में हंसा उसकी तोद थिरकी पूछे घूम कर उसने दुकान के पीछे पान थूका और अपनी लाल काली बत्तीसी दिखाकर बोला कैप्टन चश्मा वाला करता है। क्या करता है हलदार साहब ने पूछा? चश्मा चेंज कर देता है पानवाले ने समझाया। क्या मतलब क्यों चेंज कर देता है। हलदार साहब अब भी नहीं समझ पाए। कोई गिराक आ गया। समझो उसको चौड़े चौखट चाहिए। तो कैप्टन किधर से लेगा तो उसकी मूर्ति वाला दे दिया उधर दूसरा बिठा दिया। अब हलदार साहब को बात कुछ कुछ समझ में आ गई। एक चश्मे वाला जिसका नाम कैप्टन है। उसे नेताजी की बगैर चश्मे वाले मूर्ति बोरी लगती है। बल्कि आहत करती है मानो चश्मा के बगैर नेताजी को असुविधा हो रही है इसलिए वह अपनी छोटी सी दुकान में उपलब्ध गिने चुने फ्रेमो में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है। लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ्रेम की दरकार होती जैसे मूर्ति पर लगा है तो कैप्टन चश्मे वाला मूर्ति पर लगा फ्रेम संभवत नेताजी से क्षमा मांगते हुए लाकर ग्राहक को दे देता है। और बाद में नेताजी को दूसरा फ्रेम लौटा देता है। वह भाई! खूब क्या आईडिया है! लेकिन भाई एक बात अभी भी नहीं समझ आई हलदर साहब ने पान वाले से फिर पूछा नेताजी का ओरिजिनल चश्मा कहां गया? पान वाला दूसरा पान मुंह में ठूंस चुका था दोपहर का समय था दुकान पर भीड़भाड़ अधिक नहीं थी। फिर वह फिर आंखों ही आंखों में हंस उसकी तो फिरकी कथ्ये की डंडी फेक पीछे मुड़कर उसने नीचे पीठ की और मुस्कुराता हुआ बोल मास्टर बनाना भूल गया। पान वाले के लिए एक मजेदार बात थी। हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली। मूर्ति के नीचे लिखा मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल वाकई कस्बे का अध्यापक था बेचारे ने महीने भर में मूर्ति बनाकर पाठक देने का कर लिया होगा बना भी नहीं होगी लेकिन पत्थर में पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए कांच वाला या तय नहीं कर पाया होगा। या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा। या बनाते-बनाते कुछ और बारीकी के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। उफ़......!
हलदर साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुक भर लग रहा था इन्हें ख्यालों में खोए खोए पान के पैसे चुकाकर चश्मे वाले की देशभक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ चले गए फिर रुके फिर पीछे मुड़े और पान वाले के पास जाकर पूछा क्या कैप्टन चश्मा वाला नेताजी का साथी है या आजाद हिंद फौज क्या भूतपूर्व सिपाही। पान वाला नया पान खा रहा था। पान पड़े अपने हाथ को मुंह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हलदर साहब को ध्यान से देखा। फिर अपनी लाल काली बत्तीसी दिखाई और मुस्कुरा कर बोला नहीं साहब वह लंगड़ा क्या जाएगा फौज में। पागल है पागल! वह देखो वह आ रहा है। आप उसी से बात कर लो फोटो वोटो छपवा दो उसका कही। हलदर साहब को पान वाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मजाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अब आज रह गया एक बेहद बूढ़ा मरियल सा लंगड़ा आदमी ही सिर पर गांधी टोपी और आंखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी सी संदूकुची और दूसरे हाथ में एक बार पर टंगे बहुत से चश्मा लिए अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बस टिका रहा था तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगता है। हलदर साहब चक्कर में पड़ गए पूछना चाहते थे इस कैप्टन क्यों कहते हैं इस क्या यही इसका वास्तविक नाम है लेकिन पाल वाले ने सब बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था काम भी हलदार साहब जीप में बैठकर चले गए 2 साल तक हलदार साहब अपने काम के सिलसिले में उसे कस्बे से गुजरते रहे और नेताजी की मूर्ति पर बदलते हुए चश्मा को देखते रहे कभी गोल चश्मा होता तो कभी चौकोर कभी लाल कभी कल धूप कभी धूप का चश्मा कभी बड़े फ्रेम वाला गोगो चश्मा पर कोई ना कोई चश्मा होता जरूर था उसे धूल भरी यात्रा में हालदार साहब को कौतुक और प्रफुल्लित के कुछ छोड़ देने के लिए। फिर एक बार ऐसा हुआ की मूर्ति के चश्मे पर कोई भी कैसा भी चश्मा नहीं था। उस दिन पान की दुकान भी बंद थी। चौराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं। अगली बार में मूर्ति की आंखों पर चश्मा नहीं था। हलदर साहब ने पान खाया और धीरे से पान वाले से पूछा क्यों भाई क्या बात है? आज तुम्हारे नेता जी की आंखों पर चश्मा नहीं? कान वाला उदास हो गया। उसने पीछे मुड़कर मुंह का पान नीचे धोखा और सर झुका कर अपनी धोती के सिरे से आंखें पहुंचता हुआ बोला साहब कैप्टन मर गया। और कुछ नहीं पूछ पाए हालदार साहब कुछ पल चुपचाप खड़े रहे फिर पान के पैसे चुकाकर जेब में ना बैठे और रवाना हो गए। बार-बार सोचते क्या होगा उसे काम का जो अपने देश के खातिर घर गृहस्ती जवानी जिंदगी सब कुछ हम देने वालों पर भी हंसती है। और अपने लिए बिकने के मौके ढूंढती है दुखी हो गए। 15 दिन बाद फिर इस कस्बे से गुजरे। कस्बे में घुसने से पहले ही खयाल आया कि कस्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी लेकिन सुभाष की आंखों पर चश्मा नहीं होगा। क्योंकि मास्टर बनाना भूल गया। और कैप्टन मर गया। सोचा आज वहां रुकेंगे नहीं पान भी नहीं खाएंगे मूर्ति की तरफ देखेंगे भी नहीं सीधे निकल जाएंगे ड्राइवर से कह दिया चौराहे पर रुकना नहीं आज बहुत कम है पान आगे कहीं खा लेंगे। लेकिन आदत से मजबूर आंखें चौराहा आते हैं मौत की तरफ उठ गई कुछ ऐसा देखा कि ठीक है रुको! जीप स्पीड में थी ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे। रास्ता चलते लोग देखने लगे। जीप रुकते ना रुकते के हलदार साहब जीप से कूद कर देख कदमों से किसी की तरफ लगता और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए। मूर्ति की आंखों पर सरकंडे से बना छोटा सा चश्मा रखा हुआ था जैसे बच्चे बना लेते हैं। हलदार साहब भावुक हैं। इतनी सी बात पर उनकी आंखें भर आईं।

~श्वेता यादव