...

2 views

कौन हूँ मैं
बस एक ही प्रश्न आज मेरे आत्मा को झंझकोर रहा है
की कौन हूं मैं...
क्या करने के लिए धरती पर जन्म लिया, केवल दुखों का भार उठाने के लिए गैरों के संरक्षण में अपने अस्तित्व को गवा देने के लिए और यदि मैं ऐसे ही जीवन के लिए जन्मा हूं तो फिर मुझे यह स्वीकार क्यों नहीं है,
इस संसार में मेरा स्थान कहां है कहां हूं मैं, मेरा रोता हुआ आत्मा मेरे पास बैठ कर मुझसे पूछ रहा, क्या मेरा अपने ही शरीर पर कोई अधिकार नहीं, और अधिकार नहीं है तो क्यों नहीं है, और यदि है तो कहां है, क्या मर्जी है ईश्वर के मुझे बनाने को, क्या सोचकर उन्होंने मुझे बनाया,
सुख के सागर के पीछे गमों का सैलाब जो मेरे मन में बह रहा है उसे उन्होंने मुझे तक क्यों पहुंचाया।
मिट्टी को पत्थर के नीचे दबा दिया जाए तो वह पत्थर ही बन जाता है।
मनुष्य भी दुखों के नीचे दबकर वैसे ही पत्थर बन जाता है,
ईश्वर ने इस बात को कहा तो फिर वह मेरे साथ ऐसी क्रियाएं क्यों कर रहे हैं
कहते हैं जब मार्ग में मन विचलित होने लगे तो मंजिल पर ध्यान लगाना चाहिए, भटका हुआ मन सुधर जाता है लेकिन मुझे तो यह भी नहीं पता की मेरा मार्ग कौन सा है और मेरा मंजिल क्या है,
इन सवालों के जवाब शायद किसी के पास नही, मैं जिससे भी पूछता हूं वह मुझे पागल कहते हैं या मुझ पर गुस्सा हो जाते है,
किसे प्रश्न किया जाए ईश्वर को ही आना पड़ेगा मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए, अगर नहीं आएंगे तो मैं समझूंगा मेरे तरह ही ईश्वर भी अस्तित्व हीन ही है,
शायद मेरा दुखों का सार कभी खत्म नहीं होगा, मैं जब भी सुख की तरफ जाने का चाहता हूं तो दुख मुझे हमेशा अपनी तरफ खींच लेता है,
मैं ईश्वर के शरण में रहता हूं तब भी मुझे डर रहता है क्यों,
इसका मतलब है कि ईश्वर मुझे अपनी शरण दे ही नहीं रहा, या ईश्वर के शरण में भी सुख नहीं,
मैं किसी को कुछ कहना नहीं चाहता लेकिन मैं मौन कैसे रहूं,
मेरे अंदर का बड़ा था मेरे अहंकार मेरे दुखों को दवा आ रहा है मुझे संतोष दे रहा है
मगर वह मुझे अधर्म के रास्ते पर ले जाएगा यह जानकर भी ईश्वर मुझे दुखों से मुक्त क्यों नहीं करता,
क्या ईश्वर ही नहीं चाहता है कि मैं प्रेम के मार्ग पर चलूं,
क्या ईश्वर ने अपने शरणागत को मार्गदर्शन देने का कार्य बंद कर दिया है
क्या ईश्वर ने भी अपनी शरणागत ले ली है
क्या ईश्वर मेरे मन के विचलित को बढ़ाना चाहता है
क्या ईश्वर चाहते हैं कि मैं भटकू और धर्म को छोड़कर अन्याय को अपनाकर मैं भी अपनी अस्तित्व को दूसरों के पैरों के नीचे रखकर स्वय को ढोंगी, दोगला, लोभी और अहंकारी समाज के शरनागत बना दूं,
और यदि ईश्वर की यही इच्छा है तो मुझे स्वीकार क्यों इश्क़...?
अमृत...
© अmrit...