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एक अलौकिकता की खोज व दास्तान बन गई थी ।।242
🔴स्त्रीत्व ही अस्तित्व की आसीमता का परिणाम व निर्माण है।।स्त्रीत्व ही अस्तित्व की आसीमता का परिणाम व निर्माण है।।इस गाथा में इसके अनन्त व अन्त से लेकर संभव तथा असंभव होने का रहस्य व प्रमुख परिमाण स्वरूप कारण यह कि यह गाथा एक स्त्रीत्व योनि की आसीमता के अस्तित्व से झुकाने के कारण प्रथम श्रेणी में तो इस कलियुग की कलि कलियौता योनि में प्रवेश कर कर्मपोशित कर्मपोटली स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका श्रापिका आदि होने कारण अपना कालश्रोथ विभकितश्रोत तथा लिगश्रोथ नष्ट प्रथम श्रेणी में पहले ही अपना स्त्रीत्व छोड़कर अपने अस्तित्व की खोज व असीमता का उल्लेख किए बिना ही वह शून्यनिका संबोधित होकर ही महाशक्ति सिद्ध होकर अपने वास्तविक स्वरूप में जाकर विलुप्त व अनतरध्यान होकर वहीं अपनी उसी योनि में प्रवेश कर इस गाथा को संभव व असंभव तथा अनन्त व अन्त दोनों ही रूप सिद्ध कर वह अपने प्रेम की अर्थात वृन्दावन से होकर मणिकर्णिका से होकर और अब समय की आसीमता अर्थात स्वयं आत्मा के में एक अलौकिकता की खोज व दास्तान बन गाई थी।।

इस गाथा के अन्तर्गत वह आखिरी में निम्न में से शून्य से नीचे तुच्छीका कहलाकर संबोधित हो गई क्योंकि वह है जिसके स्त्रीत्व अपने स्त्रीत्व को समाप्त कर तुच्छिका होकर भी यह गाथा अनन्त व असंभव कर इसे इच्छा व स्वार्थ से ग्रस्त कर देती है।।

जिसमें अब तुच्छीका होकर शून्य की आसीमता में अस्तित्व की आसीमता को समाप्त व उजागर कर स्त्रीत्व को एक असत्यता का जीवन स्वरूप दंडकाल घोषित किया गया है इसलिए अन्त में वह हर योनि की नायिका का हर विभकितश्रोत कालश्रोथ लिगश्रोथ को अपनी योनि के उस श्राप से भर कर उसे इस गाथा के दीप का तेल कहकर संबोधित करती और उसे ही इस गाथा सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि सर्वोच्च प्राथमिकता का सार अस्तित्व आसीमता कहती जो कि स्त्रीत्व हैं
फिर चाहे ही असत्यता वास कितनी तुच्छ क्यों ना हो जाए मगर इस कलि के कलियुग के कलियौता में भी उसका स्त्रीत्व विषय वो है जो उसके कालश्रोथ विभकितश्रोत लिगश्रोथ सबको ही उसके स्वयं अस्तिव द्वारा उसकी मरियादा तथा धर्म में किसी को ना बचाकर भी उसे अन्त में सिद्ध कर उसे यह सीख देता कि कालचकृ श्रोत में कहा गया है कि केवल श्री कृष्ण से प्रेम
करना ही अर्थक कहलाता है और किसी भी योनि व चूत का किसी लन्ड की तरफ केवल एक असम्भव प्रयास है जो कि उन्हें दुर्बल व स्वार्थ व इच्छा से रहित करता ताकि सबका एक मात्र अनन्त व संभव मिलन कार्यक्रम एक संभव समय जरूर प्राप्त हो पर इसमें कितना समय लगेगा वो केवल स्त्रीत्व की योनि से ही पता चल सकता नाकि अस्तित्व के आधार से इसलिए केवल सत्री की
आत्मा है जो अपने वास्तविक परिमाण से मिला सकती है।।
अन्यथा यह एक असम्भव प्रेम गाथा अनन्त में ही विराजमान हैं।।

"इस गाथा में शरीर काभी कोई कार्य नहीं कर सकता क्योंकि हमारे समस्त कार्य हमारी आत्मा करती है मगर फिर भी वह शून्य है लेकिन आत्मा किए गए कार्यों का दंड एक पार्थिव शरीर को मिलता जो एक असत्य को दर्शाता है इसलिए अन्त वह परमात्मा में नहीं बल्कि सिर्फ अगस्त्य में वास करता है।।

इसलिए स्त्रीत्व केवल एक मार्ग मगर उस मार्ग से हम किसे प्राप्त होंगे यह निर्भर करता केवल एक मात्र विकल्प पर स्त्रीत्व पर यानी आत्मा पर जो कि कालचकृ श्रोत तथा विभकितश्रोत तथा लिगश्रोथ अर्थात परमात्मा का स्वरूप है।।
🔴 "अस्तित्व बड़ा है या स्त्रीत्व"🪔🙏
श्री कृष्ण -कृष्णानन्द वैशलयकरमी राजपूत
श्री राधा -लैसवी हैयास
श्री रूपमणि -शिवानी शाह
समाज -श्रोतावली🪔

अस्तित्व को स्त्रीत्व ने बोया है अपने रक्घटिका से।।
स्त्रीत्व ही अस्तित्व की आसीमता है जो कि असत्य होकर तुच्छ है मगर फिर भी शून्य है।।

अस्तित्व की योनि में स्त्रीत्व का योग क्या व परिक्षण धर्म व कालश्रोथ विभकितश्रोत लिगश्रोथ -इस उपन्यास में यह गाथा का अस्तित्व है जो कि कालचकृ श्रोत व विभकितश्रोत लिगश्रोथ सबको दर्शाती है।।
इसलिए लैसवी वैशया लेखिका का अस्तित्व था
लेखक कृष्णानंद श्री कृष्ण वासुदेव जिन्होंने उसके विभकितश्रोत लिगश्रोथ कालश्रोथ को छदि पुजाकर उसके स्त्रीत्व को भंग व खडिंत करके उसके धर्म को नष्ट करके उसके स्त्रीत्व का कालश्रोथ विभकितश्रोत लिगश्रोथ खंड खंड कर दिया।। 🔴 मगर अब सवाल यह उठता है कि अगर उन्होंने प्रेम श्री राधा से किया तो फिर उन्हें कोई अस्तित्व क्यों नहीं प्रदान व प्राप्त हुआ।।
क्या इससे गाथा का उल्लघंन नहीं हुआ होगा।।
कि उन्होंने त्रेतायुग में मरियादा के लिए धर्म को भंग किया था जिसमें श्री राधा अर्थात सीता को समाज के चलते वनवास मिला था...