...

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शीशे में कैद
जब तक ये जाना की तुम मेरी और मैं तुम्हारा हू इस दूरी का अंजदा भी ना था की इस खुले
आसमा में हम किसी शीशे की दीवार में कैद है

शीशे में दिखती तो हो पर दीवार तो है
उसके पीछे से मुस्काती पर पहरेदार
तो है
कितना आसान लगता है की तुम कितने
पास हो सब कुछ दिखता साफ साफ है
पर शीशे की ही सही दीवार तो है

कितना मुश्किल होता है देख के अनदेखा होना लोगो के बीच में खोना
इस दुनिया के लिए हम अनजाने पर सबसे
खास हो

जब भी जज्बात जागते वो टकरा जाते
शीशे के इस पार ही रह जाते तुम देख लेती हो
और हम वापस चले जाते है

एक पत्थर से तोड़ दू ये कांच की दीवार
पर बहुत कुछ बिखर सा जायेगा
और हमारे कदमों में ही चुभे गा बस यही
नही चाहता इस दीवार से तुमको निकल
तो लू पर चुभे शीशे के घाव कैसे भरूगा
तेरी इस बैचनी का इलाज कैसे करुगा

सच कितना कुछ पा कर एक अधूरापन
सा लगता है पर शीशे की कैद में भी हो
कर तुमने कभी इस बात का अहसास
होने नही दिया शायद ये इसलिए की
तुम मुझे मुझसे बेहतर जाने लगे हो और
इसलिए ही संभाल लेते है

कितना अजीब लगे गा ये सुने में की
कोई शीशे से टकरा के टूट जाता है

है मेरी कल्पना से भरी कहानी मेरे पास
जीती जागी निशानी मेरे पास सब कुछ
तो है बस मैं इस पार तुम उस पार

आर पार दिखता है मैं कैसा हूं तुम कैसे
हो खुशियां भी दिख जाती है और तकलीफे
भी और मजबूरियां भी






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