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माघ की काली रात (प्रथम भाग)
उत्तराखण्ड के जनपद पौड़ी के एक गाँव रामगढ़ में चैतराम नाम का एक साहसी एवं चालाक आदमी रहता था । अपने साहस एवं चतुरता के कारण ही वह घनघोर जंगल के बीच स्थित इस गाँव में अपने परिवार सहित अकेला रहता था । रामगंगा नदी के किनारे स्थित इस गाँव के अन्य लोग आज़ादी के बाद मूलभूत सुविधाओं की तलाश में गाँव छोड़कर इधर-उधर चले गए थे । चैतराम अनपढ़ था इसलिए अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए वह यहाँ के जंगलों एवं नदी पर अभी भी आश्रित था । साल के घनघोर जंगलों से वह आस-पास के गांवों को इमारती लकड़ी बेचकर एवं नदी से मछली मारकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था । जंगली जानवरों के आतंक से उसने कृषि कार्य अन्य लोगों की तरह लगभग छोड़ दिया था । इसकी क्षतिपूर्ति वह जंगली जानवरों को मारकर उनका माँस,खाल और सींग बेचकर करता था ।
चैतराम को जंगली जानवरों के बीच जीने का अनुभव विरासत में मिला था । शिकार करने के लिए वह आदिम युग की तकनीक का उपयोग करता था । जंगली जानवरों को मारने के लिए वह पहले जंगली जानवरों के आने-जाने के रास्तों को तलाशता । इसके बाद उन रास्तों में वह मजबूत रस्सियों एवं तारों के फन्दे बनाकर फाँसी के रूप में छोड़ देता था । रात्रि के समय जब वह जानवर उधर से गुज़रते तो फाँसी के इन मजबूत बंधनों में फँसकर वे चैतराम के जीवकोपार्जन का साधन बनकर रह जाते थे । सुबह-सुबह चैतराम और उसका पूरा परिवार उन जानवरो को काट-पीटकर आस-पास के गांवों एवं हाटों में बेच आते थे ।
उत्तराखण्ड में वन्य प्राणियों को मारना कानूनी रूप से जुर्म माना जाता है । वन विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी जानवरों के अवैध शिकार को रोकने के लिए दिन भर गश्त भी लगाते रहते हैं । लेकिन दूर-दराज़ के गाँवों में हर रोज गश्त पर जाना भी किसी तपस्या से कम नहीं । कई बार भनक लगने पर वन अधिकारियों ने चैतराम से पूछताछ भी की । एक-दो मौकों पर उसके घर से जंगली जानवरों का गोश्त भी पकड़ा लेकिन चैतराम ने अपने परिवार की स्थिति इन अधिकारियों को स्पष्ट बता दी । ऐसे हर एक मौके पर उसने अपने सारे परिवार को भी अपने साथ ले चलने की बात कही । उसकी ग़ैर मौजूदगी में उसके परिवार की जंगली जानवरों से सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उन अधिकारियों की होगी कह कर वह वन विभाग की टीम को ही लाचार कर देता था । लाचार अफ़सर एक नई मुसीबत को गले लगाने से अच्छा चैतराम को छोड़ देते थे । चैतराम अपनी दैनिक जीवनचर्या में इस नए अनुभव को जोड़कर फिर अपने कारोबार में लग जाता था ।
उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्रों में तब सरकार वनों की कटाई-छँटाई के लिए समय-समय पर विशेष शर्तों सहित यहाँ के वनों की नीलामी करती थी । जिससे बेकार पड़ी लकड़ियों को उपयोग में लाकर सरकार को राजस्व प्राप्त हो सके । इसमें सरकार एवं ठेकेदार के फ़ायदे के साथ-साथ नज़दीकी गाँव वालों को भी कुछ दिन का रोज़गार मिलता था । कभी-कभी ठेकेदार लोग अपने फायदे के लिए नेपाल से भी मजदूर लाते थे । ये मजदूर काफी मेहनती एवं साहसी होते हैं । शेर,बाघ,जंगली हाथियों एवं अन्य घातक जानवरो की प्रवाह किए बगैर ये अपने काम को मेहनत से करने के लिए जाने जाते हैं । दिन भर की मेहनत के बाद शाम को भोजन और फिर काफी देर तक गाना-बजाना,भजन-कीर्तन,किस्से-कहानियाँ इनकी झोपड़ियों से अक़्सर सुनाई देता । उसके बाद ईश्वर का नाम लेकर गहन निद्रा में ये सब कुछ भूल जाते । सुबह नाश्ता करने के बाद ताज़ी-ताज़ी हवा में अपने औजारों को लहराते हुए ये अपने काम पर निकल पड़ते । अक्सर सर्दियों के मौसम में सात-आठ महीने काम करने के बाद ये मज़दूर अपने देश नेपाल चले जाते थे ।
एक बार की बात है । चैतराम के गाँव के नजदीकी जंगल में कटान का काम चल रहा था । जिससे चैतराम के गाँव में भी काफ़ी चहल-पहल थी । न जाने कितने वर्षों के बाद उसके बच्चों ने इतने आदमियों को अपने गाँव में देखा होगा । दिन में जंगल में लकड़ी कटान के काम को करने वाले ये मजदूर रात्रि विश्राम के लिए अपने डेरे चैतराम के गाँव में डाले हुए थे । चैतराम और उसके परिवार के लोग आजकल काफी खुश थे क्योंकि अब उन्हें माँस-मछली बेचने दूर नहीं जाना पड़ता था । चैतराम व उसके परिवार के सदस्यों के साथ इन मजदूरों का मेल-जोल काफ़ी बढ़ गया था । उनमें से ही एक अधिक उम्र का मजदूर चैतराम के साथ उसी गाँव में रहने को भी तैयार हो गया । शायद उसके अपने गाँव में अपना कोई नहीं था । इसलिए उसने अपना देश नेपाल छोड़कर शेष जीवन यहीं व्यतीत करने की बात मन में सोच ली थी । इस मजदूर का नाम दानसिंह था । दानसिंह बहुत ही कर्मठ एवं ईमानदार था । वह घर के काम को एक पारिवारिक सदस्य की तरह करता था । इसलिए बहुत कम दिनों में ही वह चैतराम के घर के सदस्यों से घुल-मिल गया । वह चैतराम को पिताजी कहकर पुकारता तथा एक आदर्श पुत्र की भाँति चैतराम की आज्ञा का पालन करता था । यद्यपि चैतराम और दानसिंह की उम्र में ज्यादा अंतर न था फिर भी उनके बीच यह रिश्ता एक तरह से सम्मान और प्रेम का प्रतीक बन गया था ।
दानसिंह अब चैतराम के हर कार्य में उसका हाथ बँटाने लगा । बहुत कम समय में वह नदी में तैरना,मछली पकड़ना, जंगली जानवरों के लिए फाँसी लगाने जैसे कार्यों में पारंगत हो गया । चैतराम को दानसिंह जैसे व्यक्ति की सख्त जरूरत भी थी । उसके सहारे चैतराम ने इस घनघोर जंगल में इस वर्ष खेती का काम भी शुरू कर दिया । अपने घर के नज़दीकी खेतों को जोतकर उसने उनमें रवि की फसल की बुआई कर दी । इसके बाद दानसिंह की सहायता से खेतों के चारों ओर जंगली जानवरों से खेती के बचाव के लिए बाढ़ लगाने का काम भी शुरू कर दिया । पन्द्रह-बीस दिनों के बाद एक बार पुनः चैतराम के वर्षों से बंजर खेतों में हरियाली छा गई । जंगली जानवरों की नज़र से वह मामूली बाढ़ से अपने खेतों का बचाव करना चाहता था । लेकिन बारहसिंगा एवं जंगली सुअर उसकी मेहनत पर पानी फेरने लगे । चैतराम एवं दानसिंह अपने दो पालतू कुत्तों भोटी और रॉकी के साथ रातभर खेतों पर पहरा देते थे । इसके साथ-साथ दानसिंह की मदद से चैतराम ने ख़ास-ख़ास रास्तों पर मजबूत तारों की फाँसी बनाकर भी लगा दी थी । हर दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई जानवर उनकी बनाई फाँसी में फंस जाता था । जिसे चैतराम,दानसिंह व परिवार के अन्य सदस्यों के साथ-साथ भोटी और रॉकी भी भरपेट चाव से खाते थे । बड़े जानवरों के मरने पर वे उसका माँस गाँव में ठहरे मजदूरों में ही बेच देते थे ।

(२)



माघ का महीना था । अब तक गेहूँ में बालियाँ आ गई थी । चैतराम ने दानसिंह के साथ अपने खेतों का पहरा बढ़ा दिया । जानवरों के आने-जाने के अधिकाँश रास्तों पर मजबूत रस्सियों एवं तारों की फांसियाँ लगा दी गई थी । आज शनिवार का दिन था इस वर्ष माघ माह की अमावस शनिवार को पड़ रही थी । नेपाली लोग हिन्दू रीति-रिवाजों को बड़े हर्षोल्लास से मनाते हैं । अमावस की रात को भोजन के बाद नेपाली मजदूरों के डेरों में कुछ देर तक भजन का कार्यक्रम चला । इसके बाद दिन भर थके-हारे मजदूर अपने-अपने डेरों में सो गए । चैतराम के परिवार के अन्य सदस्य भी घास-फूस से बने अपने मकान में सो गए । चैतराम और दानसिंह भोटी व रॉकी के साथ फसल की रखवाली करने खेतों में बने मचान पर चले गए । भोटी और रॉकी बड़ी मुस्तैदी से खेत की ओर आने-जाने वाले हर एक जानवर की पदचाप सुनते ही चैतराम और दानसिंह को सचेत कर रहे थे । माघ की काली रात और ऊपर से अमावस के कारण जंगल के बीच बसे इस गाँव को अँधेरे ने अपने आग़ोश में लिया हुआ था ।
रात्रि के दो बजे थे । चैतराम के खेत से क़रीब दो सौ गज़ की दूरी पर आज सुबह ही दानसिंह ने जो आठ नम्बर की जी आई की तार से बनी फाँसी एक मजबूत गूलर के पेड़ से बाँधी थी उसमें किसी जानवर के फँसने का आभास हुआ । जैसे ही रॉकी और भोटी को यह आभास हुआ वे जोर-जोर से भोंकने लगे । थोड़ी ही देर के बाद वहाँ से जोर-जोर की गुर्राहट सुनाई देने लगी । चैतराम और दानसिंह को समझने में देर न लगी कि फाँसी पर आज कौन सा जानवर फँसा है । समय के साथ-साथ वह गुर्राहट भी और तेज होने लगी । शेर की मामूली आवाज़ से भी दिल दहल जाता है । जब जंगल का राजा फाँसी के बंधन में फंस गया तो उसके क्रोध की सीमा भी कई गुना बढ़ गई । आउम्म ! आउम्म ! हुर्रोम ! आउउम्म की आवाज़ सुनकर सारे मजदूर व चैतराम के परिवार के सभी सदस्य भी जाग गए । भोटी और रॉकी भौंकते-भौंकते अब तक शेर के सामने पहुँच गए । उनको देख कर शेर और भी रौद्र रूप धारण कर लेता था । उसकी गुर्राहट में और अधिक तेजी आ गई थी । शेर की यह भयंकर आवाज़ आस-पास के अन्य गाँवों तक भी पहुँचने लगी ।
चैतराम और दानसिंह की अक्ल अब बिल्कुल काम नहीं कर रही थी कि अब क्या किया जाए । सभी मजदूर भी अपने डेरों से उठकर चैतराम के खेत में आ गए । लेकिन किसी का भी आगे बढ़ने का साहस नहीं हुआ । आगे बढ़ने का मतलब था मौत का ग्रास बनना । किसी तरह भोटी और रॉकी को चैतराम ने अपने पास बुलाया और उन्हें मोटी-मोटी लोहे की जंजीरों से बाँध दिया । करीब दो-ढ़ाई घण्टे के बाद जंगल के राजा अपनी मुक्ति के असफल प्रयासों के बाद थक गया था । धीरे-धीरे उसकी आवाज़ शिथिल पड़ने लगी । उसकी चुप्पी पर रॉकी और भोटी ने भी भौंकना बन्द कर दिया । चैतराम,दानसिंह व सभी मज़दूर इस चुप्पी को शेर की मौत समझने लगे । इसके साथ ही अगली सुबह कानून की पकड़ से बचने के लिए सभी शेर को ठिकाने लगाने की बात सोचने लगे । चैतराम सभी के सुझाव सुनता रहा । कोई कहता कि सुबह होने से पहले शेर को ज़मीन में दफना दिया जाए । कोई कहता किसी कपड़े पर बाँधकर उसे नदी में फेंख दिया जाए । किसी का सुझाव था कि उसे जला दिया जाए तो कोई कहता कि उसकी बोटी-बोटी करके नदी में बहा दिया जाए । जितने मुँह उतनी बातें हो रही थी । चैतराम का डर के मारे बुरा हाल था । छोटे-छोटे अपराधों से वह वन विभाग के अधिकारियों की नजरों से आज तक बचता आ रहा था । लेकिन इस बार का अपराध कोई छोटा अपराध न था । वन्य प्राणियों की हत्या करने के अपराध में उसे आजीवन कारावास भी हो सकती थी । बेचारा यह सोचकर काफ़ी परेशान था । इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए उसने अपने इष्ट-देवताओं का ध्यान भी किया । लेकिन इस समय कोई भी उसकी मदद करने घटना स्थल पर नहीं आया । इस परेशानी से छुटकारा उसे उसकी अपनी युक्ति ही दे सकती थी ।
सर्दियों के मौसम में रात देर से खुलती हैं । नदी की घाटियों में धुंध भी छाई रहती है । चैतराम मौके का फायदा उठाकर वहाँ से भाग जाना चाहता था । लेकिन घर पर जवान लड़कियाँ एवं छोटे लड़के को छोड़कर वह अपने कदम आगे न रख सका । सुबह के छः बज गए थे । मजदूर लोग अपने औजारों पर धार लगा कर जंगल जाने की तैयारी कर रहे थे । बीच-बीच में वे चैतराम पर आए विपत्ति की चर्चा भी कर रहे थे । उनमें से कुछ लोग दानसिंह को अपना देशवासी समझकर उसे वहाँ से भाग जाने की सलाह दे रहे थे । लेकिन दानसिंह ऐसा करके अपने मालिक को धोखा नहीं देना चाहता था । उसने अपने करीबी लोगों को जवाब देते हुए कहा,"यदि तुम मुझे बचाना चाहते हो तो पहले शेर को ठिकाने लगाते हैं । फिर जैसा आप कहो वैसा ही होगा" । यह सुनकर चार-पाँच जवान युवकों ने अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज की और दानसिंह की मदद करने के लिए तैयार हो गए । दानसिंह ने भी अपने फरसे पर धार लगाई और चैतराम को साथ लेकर सभी शेर के पास पहुँच गए । चैतराम बहुत चालाक आदमी था,उसने मन ही मन सोचा कहीं शेर जीवित होगा तो वह कुछ भी कर सकता है । इसलिए वह सबसे पीछे चल रहा था ।


(३)

इन युवकों में अजय बहादुर नाम का एक अति उत्साही प्रवृति का युवक भी था । सभी मजदूरों के बीच वह अपनी उत्साही गतिविधियों से चर्चित था । इस घटना में भी नायक का श्रेय लेने के लिए वह इस दल के नायक के रूप में सबसे आगे चल रहा था । कंधे में धार लगी चमचमाती कुल्हाड़ी रखकर वह बड़े रौबीले अंदाज में आगे बढ़ रहा था । शेर रातभर थक-हार कर नींद में था । सभी उसे मरा हुआ समझकर दबे पाँव उसके करीब पहुँच गए। अजय ने आगे बढ़कर अपनी कुल्हाड़ी से शेर पर जोरदार प्रहार किया । शेर क्रोध एवं दर्द से एक साथ बिलबिला उठा। वह जोर के साथ अपने ऊपर हमला करने वाले अजय की ओर लपका ।
मृत्यु को नजदीक देखकर प्रत्येक प्राणी के अंदर उससे बचने के लिए अंतिम प्रयास के रूप में एक नई ताकत स्वयं ही आ जाती है । शेर ने भी मौत से बचने के लिए अपने अंतिम प्रयास में इतना जोर लगाया कि फाँसी के लिए लगाई तार टूट गई । फिर क्या था शेर ने अपना रौद्र रूप धारण कर अजय पर जोरदार पर हमला कर दिया । शेर के अचानक हमले से सभी मजदूरों के हाथों से हथियार छूट गए । बड़ी मुश्किल से उनके मुख से बचाओ-बचाओ की करुण आवाज़ निकली । अब तक शेर के शिकारी पंजों की मार से अजय के प्राण पखेरू उड़ गए थे । शेर उसे घसीटता हुआ समीप की झाड़ियों में ले गया । शेर अपना सारा गुस्सा गुर्रा-गुर्राकर अजय के मृत शरीर को नोच-नोच कर निकालता रहा ।
अब सब मजदूरों के दिलों में शोक एवं भय छा गया । सभी लोग मसाल जलाकर व ड्रम और कनस्तर पीट-पीट कर शेर के मुँह से अजय की देह को छुड़ाने का प्रयास करने लगे । लेकिन शेर गुर्रा-गुर्राकर उनकी ओर देखता । भय के कारण कोई भी उधर जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था । मजदूरों के शोरगुल व रोने की आवाज़ सुनकर आस-पास के गाँव के लोग भी वहाँ पहुँच गए । सब लोग इस हृदय विदारक घटना को देख बहुत दुःखी थे ।
चैतराम के सामने इस घोर संकट से बचने का कोई उपाय न था । उसने वहाँ एकत्र भीड़ के आगे हाथ जोड़कर निवेदन किया कि किसी तरह इस घटना को एक आकस्मिक घटना सिद्ध करने में उसकी मदद करें । निकट के दो-चार गाँवों के ग्राम प्रधान भी अब तक वहाँ आ गए थे । चैतराम का गाँव भी किसी अन्य गाँव की ग्राम सभा में सम्मलित था । वहाँ के ग्राम प्रधान गजेसिंह भी इस घटना को सुनकर वहाँ पहुँच गए । आनन-फानन में प्रधान जी ने वहाँ उपस्थित लोगों की एक सभा की । उसमें सभी लोगो के साथ-साथ वहाँ कामगार मजदूरों से भी इस घटना को आकस्मिक घटना बताने का अनुरोध किया गया ।
यद्यपि यह घटना एक अनहोनी न होकर चैतराम एवं दानसिंह द्वारा जंगली जानवरों के अवैध शिकार की घटना थी । लेकिन अजय की इस तरह मौत से अब चैतराम अजय की आकिस्मक मौत के लिए भीबजिम्मेदार साबित हो रहा था । चैतराम के परिवार की दशा देखकर इधर हर कोई इस बात को छिपाने का प्रयास करने में था । उधर शेर उस लावारिश अजय की लाश के साथ गुर्रा-गुर्राकर झाड़ियों में अपना गुस्सा शान्त करने में लगा था ।
सुबह के नौ बज चुके थे । सभा में उपस्थित गणमान्य लोगों की बैठक में यह तय हुआ कि सब लोग इस घटना को एक आकस्मिक घटना मानें । अन्यथा उस रात यहाँ रहने वाले सभी लोग सरकार के कोप से लड़ने को तैयार रहें । यदि सच का पता लग गया तो चैतराम के साथ-साथ न जाने कितने लोग इस घटना की गिरफ़्त में आ सकते हैं । वैसे भी कानून के हाथ लम्बे होते हैं जुर्म करने वाला,जुर्म सहने वाला और जुर्म देखने वाला कभी भी कानून से नज़र नहीं चुरा सकते । यह बात भय बनाकर सबके सामने रखी गई । चैतराम की इन कारगुजारियों की सज़ा के तौर पर बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि अजय के दाह संस्कार व उसके अस्थि कलश को उसके गाँव तक भिजवाने का पूरा खर्च चैतराम उठाएगा । पंचों के निर्णय को चैतराम ने विनम्रभाव से स्वीकार कर लिया ।
वहाँ उपस्थित भीड़ ने अपनी ओर से अजय के शव को शेर से छुड़ाने का पूरा प्रयास किया । लेकिन जैसे ही कोई उस ओर पत्थर इत्यादि फेंखता शेर की गर्जना सारे वातावरण को आतंकित कर देती । एक-दो बार शेर अजय के शव को छोड़कर भीड़ की और भी लपका । लेकिन रॉकी और भोटी ने किसी प्रकार स्थिति को काबू में किया ।
अजय का शव छुड़ाने के तमाम असफल प्रयासों के बाद लोगों को इस बात का भय लगने लगा कि कहीं शेर नरभक्षी बनकर इलाके में आतंक न मचा दे । इसलिए आम राय से तय किया गया कि इस आकस्मिक घटना की सूचना वन विभाग को दी जाए । घटना स्थल पर उपस्थित सभी ग्राम-प्रधानों एवं गणमान्य लोगों के हस्ताक्षर के साथ यह सूचना तुरन्त वन विभाग को भेज दी गई कि इस गाँव में रात को शेर ने अचानक एक मजदूर पर हमला कर उसे मार दिया है । शेर की चुंगल से शव को छुड़ाने के लिए भी वन विभाग से गुजारिश की गई । इसकी एक प्रति जिलाधिकारी के सूचनार्थ भी प्रेषित की गई ।
सरकारी कार्यों को पूरा करने के लिए कई नियम-कानून आड़े आते हैं । इसलिए उस दिन अजय का शव शेर की चंगुल से नही छुड़ाया जा सका । सारी रात चैतराम,दानसिंह व मजदूरों ने खुले आसमान के नीचे जगह-जगह आग जलाकर काटी । रात में रुक-रुक कर शेर जब भी गर्जना करता सब लोग भय से काँप जाते । उन्हें इस बात का भय था कि एक बार शेर के मुँह इंसान का खून लग जाने से वह नरभक्षी हो जाता है । अजय के शव को खाने के बाद शेर न जाने क्या करेगा यह सोच-सोच कर सब परेशान थे । किसी तरह यह आतंकमयी रात कटी ।
भय के कारण सुबह भी कोई मजदूर अपने काम पर नहीं गए । शेर अब अजय के शव को छोड़कर सामने एक विशाल पत्थर पर जा बैठा । रॉकी और भोटी की नजर जब उस पर पड़ी तो वे शेर की तरफ़ भागे । शेर अपने असली रूप में आकर गुर्राते हुए रॉकी पर झपट पड़ा । रॉकी और भोटी ने भी पूरे जोर से हमला किया । सभी मजदूरों ने शोर मचाकर और शेर की ओर पत्थर फेंख कर बड़ी मुश्किल से रॉकी को शेर की चुंगल से छुड़ाया । लेकिन शेर के तीखे पंजों से रॉकी का एक कान दो टुकड़ों में फट गया । रॉकी के गले पर भी शेर के पंजों के गहरे घाव हो गए । शेर एक बार फिर जोर-जोर से गुर्राता हुआ झाड़ी में अजय के शव के पास जाकर लेट गया ।

(४)

दिन के एक बजे कुछ लोगों ने यह सूचना दी कि जिलाधीश ने तहसीलदार को तहक़ीक़ात के लिए भेजा है । उनके साथ वन विभाग के आला अफ़सर भी मौका मुवायना करने पहुँचने वाले हैं । यह भी सूचना मिली कि वन विभाग के आफिसर भी अपने साथ असलाहधारी दो वन रक्षक एवं दो हाथियों के साथ घटनास्थल पर पहुँच रहे हैं । चैतराम को पुनः सरकारी हुक्कामों का भय व्यापने लगा । उसने वहाँ उपस्थित सभी लोगों से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि इस मुसीबत से उसे बचाने में मदद करें । गाँव के भोले-भाले लोगों और मजदूरों ने चैतराम की व्यथा को अपनी व्यथा समझकर उसे ढाँढस बंधाया । थोड़ी देर में तहसीलदार साहब क्षेत्रीय पटवारी व चपरासी सहित घटना स्थल पर पहुँच गए । घटना स्थल का मुवायना करते हुए तहसीलदार ने वहाँ उपस्थित लोगों को घटना की सही-सही जानकारी देने को कहा । सभी लोगों के बयान दर्ज़ किए गए । सभी ने यही बात दोहराई कि अजय रात में शौच करने के लिए इधर आया तो शेर ने उस पर अचानक हमला कर दिया ।
अब तक वन विभाग के अधिकारी भी अपनी टीम के साथ घटना स्थल पर पहुँच चुके थे । उन लोगों ने भी घटना स्थल का मौका-मुवायना किया एवं वहाँ उपस्थित लोगों से घटना के बारे में पूछताछ की । सभी ने वही रटा-रटाया जवाब दिया कि अजय रात में शौच करने के लिए इधर आया तो शेर ने उस पर अचानक हमला कर दिया । कई लोगों के बयान दर्ज़ किए गए उसके बाद अजय के शव को शेर की चुंगल से छुड़ाने का अभियान शुरू किया गया ।
दोनों महावत हाथियों को उस ओर ले गए जहाँ शेर अजय बहादुर के शव को ले गया था । हाथियों पर महावत के साथ एक-एक बन्दूकधारी गार्ड भी मुस्तैदी से बैठे हुए थे । शेर की गंध सूँघकर दोनों हाथी जोर-जोर से अपने कान फड़-फड़ाकर चिंघाड़ने लगे । इसके बाद शेर ने भयंकर गर्जना की । दोनों हाथियों को अपनी ओर आता देख शेर उसी पत्थर पर जा बैठा जहाँ से उसने रॉकी पर हमला किया था । शेर पर नज़र पड़ी तो दोनों हाथी सूंड उठा-उठाकर चिंघाड़ने लगे । शेर भी अपनी पूँछ उठाकर जोर-जोर से पत्थर पर पटककर जैसे हाथियों को ललकार रहा हो । तभी फॉरिस्ट गार्ड को वन विभाग के अधिकारी का हुक़्म मिला,"गार्ड हवाई फायर करो,शेर हमला करने वाला है"। दोनों गार्डों ने बारी-बारी से हवाई फायर किए व दुबारा अपनी बंदूकों में गोलियाँ भरी । गोलियों की आवाज़ सुनकर शेर एक लंबी छलाँग लगा कर कुछ दूर चला गया । वह मुँह आसमान की ओर करके जोर-जोर से दहाड़ने लगा ।
दोनों महावत हाथियों को अजय के शव की ओर ले जाने लगे । रॉकी और भोटी घायल होकर भी उनका मार्ग दर्शन कर रहे थे । जैसे ही महावत हाथियों को अजय के शव के करीब ले गए शेर जोर-जोर से गुर्राता हुआ कुछ आगे बढ़ा । अपने अधिकारी से फ़ायर-फ़ायर का आदेश मिलते ही फारेस्ट गार्ड्स ने शेर की दिशा में दो-दो राउंड फ़ायर किए । शेर गोलियों की रेंज से दूर था इसलिए उसे कोई नुक़सान नहीं पहुँचा । इस बार शेर गोलियों की आवाज़ सुनकर और पीछे हट गया ।
एक महावत ने तुरन्त उतरकर अजय के शव को जो कि अब कंकाल मात्र रह गया था एक बोरी में डालकर उसे हाथी की पीठ पर चढ़ाया । इसके बाद वे धीरे-धीरे गाँव की ओर वापस लौटने लगे । शेर पाँच-छः सौ मीटर की दूरी पर खड़ा होकर अब भी गुर्रा रहा था । फॉरिस्ट गार्डों ने शेर को डराने के लिए दो-दो राउण्ड हवाई फ़ायर किए । शेर भी अब समझ गया कि शिकार हाथ से निकल गया है इसलिए वह गुर्राता हुआ घने जंगल में लुप्त हो गया ।
तहसीलदार ने अजय के शव को भली भाँति देखा । लेकिन उसमें माँस केवल पैरों और छाती पर ही बचा हुआ था । इतना विभत्स दृश्य देखकर सभी लोग पुनः शोक में डूब गए । पंचनामा के साथ ही सारी लिखित कार्यवाही घटनास्थल पर ही पूरी कर ली गई । तहसीलदार साहब भले आदमी थे इसलिए शव का दाह संस्कार करने का आदेश देकर वन विभाग के अधिकारी और अन्य कर्मचारी भी घटना स्थल से वापस चले गए । चैतराम और सभी मजदूरों के साथ पूरी रीति-रिवाज़ से अभागे अजय का अंतिम संस्कार किया । सभी मजदूरों ने चैतराम को अजय की अस्थियाँ नेपाल में उसके पैतृक गाँव भेजने को कहा । चैतराम ने मृतक के गाँव का नाम-पता अन्य मजदूरों से ले लिया । उन मजदूरों में से एक श्याम बहादुर अजय के गाँव के निकट का था । श्याम बहादुर को साथ लेकर चैतराम ने अजय का अस्थिकलश तैयार करवाया । इसके बाद वे दोनों शाम की बस से अजय के गाँव जाने के लिए तैयार हो गए । श्याम बहादुर को चैतराम अपने खर्च पर ही नेपाल ले गया ।
चार दिन के बाद चैतराम अपने घर वापस लौट आया । सभी मजदूरों ने चैतराम से अजय के घर की बात पूछी तो उसने किसी तरह अपनी बात पूरी की । अनपढ़ मजदूरों को चैतराम की बातों पर पूरा यकीन हो गया । जब उन्होंने श्याम बहादुर के बारे में पूछा तो चैतराम बोला,"श्याम बहादुर ने मुझसे दो हजार रूपये उधार लिए अब वह घर के जरुरी काम करके कुछ दिनों के बाद लौटेगा"। चालाक चैतराम ने एक कागज़ भी उन मजदूरों को दिखाया जिस पर श्याम बहादुर ने अँगूठा लगाकर दो हज़ार रुपये लेने की बात स्वीकार की थी । उस कागज़ में श्याम बहादुर ने यह भी लिखवाया था कि मेरी मजदूरी में से यह दो हजार रूपये ठेकेदार से लेकर चैतराम को दे दिए जाएँ । मजदूर लोग लिखित बात को पत्थर की लक़ीर समझ लेते हैं । इसलिए उन्हें चैतराम की बात पर पूरा विश्वास हो गया कि चैतराम अजय के अस्थि कलश को नेपाल स्थित उसके पैतृक गाँव छोड़ आया है । चैतराम ने लगे हाथ वह कागज मजदूरों के मेठ को देकर उससे दो हज़ार रुपये भी ले लिए ।

क्रमश:........
भूपेन्द्र डोंगरियाल

© भूपेन्द्र डोंगरियाल