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दाढ़ी
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शीर्षक - दाढ़ी
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चार जुलाई को मेरा जन्मदिन आता है इस बार मेरा जन्मदिन बहुत ही खास था जिसका जिक्र मैंने जन्मदिन की पार्टी शीर्षक से जो रचना है उसमें बखूबी किया है, मैने उसी दिन एक संकल्प भी लिया था की एक अजनबी, जो अब खास बन चुका है उससे जब तक मुलाकात नही हो जाती तब तक दाढ़ी नही करवाऊंगा, ये एक ऐसा दिशाहीन संकल्प था जो शायद ही पूरा हो। पर मुझे खुद पर विश्वास था। इसलिए मैंने ये संकल्प बिना सोचे समझे ले लिया। शुरू में तो सब कुछ आसान था। लेकिन जैसे-जैसे दाढ़ी बढ़ रही थी। वैसे-वैसे मुश्किलें भी बढ़ रही थी। मुझ पर तरह-तरह की टिप्पणियां की जाने लगी। लोग अपनी सोच के अनुसार आंकलन करने लग गए। कुछ टिप्पणियां इस प्रकार थी..................
भाई मुसलमान बन गया क्या? और मुल्ल्ला जी सब ठीक है....
भाई सरदार बन गया क्या? और सरदार जी सब ठीक है........
भाई बाबा जी बन गया क्या? राम-राम बाबा जी.........
और दादा जी, अंकल जी कैसे हो... इसके अलावा और भी तरह-तरह की टिप्पणियां सुनने को मिली। घरवाले भी कहने लग गए की ये कौनसा शौंक है, उम्रदराज लग रहे हो। तुम्हे किस बात का गम है जो तुमने ऐसा हुलिया बना रखा है। मैने सभी की बातों को नजरंदाज कर दिया और दाढ़ी नही करवाई। क्योंकि मुझे मेरा संकल्प याद था। आज उस बात को पुरे 202 दिन, 4848 घंटे हो गए है। और आज भी ये आंखे तुम्हारे इंतजार में पलक पावड़े बिछाए बैठी है। लेकिन तुम भी सूरज की तरह हो गई हो, जो शायद सर्दी की वजह से बादलों को ओढ़ के आराम से सो रहा है। चित्राशी! तुम अक्सर मुझसे पूछती हो की तुम्हे मेरी कितनी याद आती है, तो तुम मेरी दाढ़ी को देख कर आसानी से अंदाजा लगा सकती हो। लोग अक्सर दूसरो की दाढ़ी के बारे में बिना सोचे-समझे टिप्पणियां कर देते है, उन्हे मालूम नही है दाढ़ी फसल की तरह होती है। जैसे-जैसे फसल बढ़ती है वैसे-वैसे दाढ़ी बढ़ती है। बहुत ख्याल रखना पड़ता है। दाढ़ी तो बढ़ती ही है लेकिन साथ-साथ में मुश्किलें भी बढ़ती है, मैं आज भी संकल्पवान हूं। मेरी दाढ़ी आज भी बढ़ रही है.....
उसकी यादों के साथ। उसकी बातों के साथ....
ये सिर्फ दाढ़ी ही नही ये सबूत है तुम्हारी यादों का....
चित्राशी! मुझे नही मालूम हम कब मिलेंगे.. लेकिन जब भी मिलेंगे.. मुझे और मेरी दाढ़ी को देख कर... तुम्हे तुम्हारे इस सवाल का जवाब मिल जाएगा कि.....
तुम मुझे कितना याद करते हो? मैं चाहता हूं की जब भी हमारी मुलाकात हो...... मेरा सिर तुम्हारी गोद में हो..... तुम्हारी जुल्फों की छांव हो.... और तुम मेरी दाढ़ी में हाथ फेरकर अपनी कातिलाना नज़रों से... देर तक मुझसे गुफ्तगू करो....
खैर छोड़ो !......
तुम मसरूफ हो.. इसलिए आज भी दोनो साथ-साथ में बढ़ रहे है एक मेरा इन्तजार और दूसरी मेरी दाढ़ी....। लेकिन चित्राशी, मुझे मालूम है की एक न एक दिन हमारा वसल जरूर मुकम्मल होगा। तब तक हम दोनो को करना पड़ेगा
इंतजार.........