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एक सफ़र अनजाना सा (प्रकाशित अक्टूबर 2022) Episode 1
"A story (Novel) which has a flavor of adventure, mystery and love."

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Episode 1

25 दिसम्बर 1986

धुँधलायी हुई शाम में दूर क्षितिज पर सिंदूरी छटा अभी बाक़ी रह गई थी। घुमड़कर उठते गहरे बादलों में मुश्किल से ही कहीं-कहीं नीला आसमान दिखाई दे रहा था। बादलों के जमघट उस ढ़लती सुनहरी शाम को स्याह किए जा रहे थे। कितनी ही देर से करण ट्रैन की खिड़की खोले बादलों में निरन्तर होते परिवर्तन को निहार रहा था। दिसम्बर माह की ठण्डक लिए हवा उसके चेहरे पर अपना सर्द एहसास करा रही थी, फिर भी वह बड़ी ही बेफ़िक्री से क्षण-प्रति-क्षण रूप बदलते उन बादलों को एकटक देखे जा रहा था। लपलपाती हुई बिजली की चमक से कभी यहाँ के तो कभी वहाँ के बादल रौशन हो उठते थे। ऐसा लग रहा था जैसे बिजली उन बादलों में दौड़-दौड़कर लुका-छुपी खेल रही हो।

उसकी नज़रें फिर आसमान से फिसलती हुई नीचे धरती पर चली आयीं। दूर तक फ़ैले गेहूँ के खेत गोल घूमते हुए से और नज़दीक के पेड़ पीछे छूटते हुए नज़र आ रहे थे। तभी उसका ध्यान सामने बैठे हुए यात्री पर गया जो बहुत देर से उसे ही घूर रहा था। वह यात्री लगभग सत्ताईस एक वर्ष का तंदुरुस्त नवयुवक था, क्लीनशेव्ड़ और आर्मीकट हेयर स्टाइल, लेकिन वेश-भूषा से वह यात्री एक ग्रामीण जैसा ही लग रहा था। करण का इस तरह खिड़की खोलना शायद उसे पसन्द नहीं आया और बाहर से आती ठण्डी हवा तो उसे कतई रास नहीं आ रही थी। उस यात्री के बिगड़ते मिज़ाज को भाँपते हुए करण ने फ़ौरन ही खिड़की वापस नीचे सरका कर बन्द कर दी।

हालाँकि बोगी की सभी खिड़कियाँ और दरवाज़े बन्द थे, फिर भी सर्द हवाओं के झोंके यहाँ-वहाँ से कम्पार्टमेंट के अन्दर आ ही जाते थे। बन्द होने के बावज़ूद भी कम्पार्टमेंट एक़दम सुन्न कर देने वाले तापमान तक ठण्डा होता जा रहा था। कंपार्टमेंट में गिनती के ही लोग थे और सभी ने कंबल या लोही ओढ़ रखी थी। ह्विसल बजाता और धुआँ उगलता हुआ, छुक-छुक करता स्टीम इंजन पूरी रफ़्तार के साथ ट्रैन को खींचता हुआ यात्रियों को उनके गन्तव्य तक पहुँचाने को आतुर था।

खिड़की के बाहर लहलहाते खेत-खालियानों को देखते हुए करण बड़ा ही सहज लग रहा था रहा था। लेकिन उसके मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार आसमान मे चमकती बिजली से कौंध रहे थे। धीरे-धीरे शाम की धुंधलाहट में खेत खलिहान उसकी नज़रों से ओझल होेने लगे और बीती यादें उसकी आँखों के सामने तैरने लगीं।

पिछले साल की ही बात है, जब उसकी मित्रता सुजीत से हुई थी। और आज सुजीत उसका सबसे प्रिय मित्र था। सुजीत एक रीयल एस्टेट कम्पनी में प्रोजेक्ट एक्जीक्यूटिव था और दोनों के ही दफ़्तर दिल्ली में इरविन स्ट्रीट पर थे। उन दोनों की पहली मुलाक़ात एक रात इरविन स्ट्रीट के कॉफी हाउस में हुई। उस रात सुजीत कैश काउन्टर पर परेशान-सा खड़ा था। परेशानी की वज़ह थी उसका पर्स, जो कहीं गुम हो गया था। अपने बिल की पेमेंट करते हुए उस रात उसने सुजीत को परेशान देख उसके बिल का भी भुगतान कर दिया। हालांकि उसका बिल कोई ज़्यादा नहीं था फिर भी सुजीत ठहरा दिल्ली वासी, वह ऐसे कैसे छोड़ सकता था, बदला तो उतारना ही था। बातों ही बातों में सुजीत ने करण से उसका पता-ठिकाना जान लिया। और उस रात सुजीत ने अपनी कार से करण को उसके पेइंग गेस्टरूम तक छोड़ा।

एक शाम करण अपने बैंक के सहकर्मी राघव के साथ कॉफी हाउस पहुँचा। जहाँ उसकी मुलाक़ात सुजीत और सुजीत के ख़ास मित्र प्रशान्त से हुई। सुजीत ने सबका आपस में परिचय कराया। पेशे से प्रशान्त फिजिक्स का प्रोफ़ेसर था और स्वभाव से बड़ा ही विनोदी। अब हुआ यूँ कि एक जैसे शालीन एवम् विनोदी व्यवहार ने उन चारों को आपस में मित्र बना दिया। फिर तो अक्सर ही वे चारों कॉफी हाउस में इककट्ठा हो जाते और जी भरकर मस्ती करते।

इरविन स्ट्रीट और करण के पेइंग गेस्टरूम के बीच थोड़ी अधिक दूरी थी, और उसे बस भी दो बार बदलनी पड़ती थी। जिस कारण वह ऑफिस के नज़दीक ही किसी रूम की तलाश में था। एक दिन करण ने बातों ही बातों में सुजीत से इस बात का ज़िक्र कर दिया। तो सुजीत ने उसे अपनी ही बिल्डिंग में एक बेड़रूम वाला खूबसूरत फ्लैट किराए पर दिला दिया जो उसके लिए बिल्कुल ही उपयुक्त था। तभी से वे दोनों ज़्यादातर ऑफिस भी साथ-साथ ही आते-जाते थे।

बीते वर्षों की तरह ही इस बार भी करण के परिवार वालों ने चिट्ठी भेजकर उसे जन्मदिन की शुभकामनाएं दीं। और उसके प्रिय मित्र सुजीत ने उसका छब्बीसवाँ जन्मदिन इरविन स्ट्रीट पर स्थित, उसके ही पसन्दीदा कॉफी हाउस में मनाया। जन्मदिन की उस पार्टी में वे चारों ही मित्र थे, करण, राघव, सुजीत और प्रशान्त। करण के मित्रों ने वह शाम उसके जीवन की एक यादगार शाम बना दी थी। पार्टी का सारा ख़र्च सुजीत ने उठाया और प्रशान्त ने करण को एक हाथ की एच-एम-टी घड़ी तोहफ़े में दी थी।

“सच ही कहते हैं, दिल्ली है दिलवालों की, और इन दिलवालों के दिलों में कितना प्रेम, कितनी मस्ती और दरियादिली है। दावत-पार्टी के लिए तो इनसे कभी भी कह दो, हमेशा तैयार। और दिल्ली? दिल्ली की तो बात ही क्या, कितनी विविधता है यहाँ। तरह-तरह की भाषा, लोग और संस्कृति! तरह-तरह का भोजन और फैशन! कितने खुले दिल से सबको अपनाती है। शायद इसलिए ही दिल्ली को देश का दिल कहते हैं!” यह सोचते हुए करण के चेहरे पर एक लम्बी-सी मुस्कान छा गई।

विचारों की गहरी खाई से जैसे ही करण वापस निकला तो खिड़की के शीशे में उसे ख़ुद का प्रतिबिंब दिखाई दिया। बाहर समय से पहले ही अंधकार छा गया था, इसलिए कंपार्टमेंट की लाइट्स जल गई थीं। उसने अपनी घड़ी पर नज़र ड़ाली, शाम के सवा पाँच हो रहे थे। ट्रैन को रामगढ़ स्टेशन पहुँचने में अभी भी एक घण्टे से ज़्यादा का समय बाक़ी था। उसका यह सफ़र दिल्ली से उसके घर चिरनालगाँव के लिए था। अब क्योंकि ट्रैन सिर्फ़ रामगढ़ स्टेशन तक के लिए ही उपलब्ध थी, इसलिए आगे का सफ़र टैक्सी या बस से ही तय करना पड़ता था।

खिड़की से बाहर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। यदा-कदा दूर अंधेरे आसमान में बिजली चमकने पर, शीशे में दिखता उसका प्रतिबिंब यकायक ही अदृश्य हो जाता था। एक तो दिसम्बर का माह उसपर वह बिगड़ता मौसम, अब तो कम्पार्टमेंट के भीतर का तापमान कुछ अधिक ही गिर गया। ठण्ड से सुन्न होते हाथों को करण ने अपनी जैकेट की जेबों में ड़ाल लिया। तभी बायीं जेब में उसने एक मुड़ा हुआ कागज़ पाया। उसने वह कागज़ बाहर निकाला। यह वही चिट्ठी थी जो उसे ठीक जन्मदिन वाले रोज़ ही प्राप्त हुई थी। वैसे तो वह इस चिट्ठी को पहले भी पढ़ चुका था, लेकिन इस बार आयी यह चिट्ठी उसके अपनों की ख़ामोश आहें, उसे बार-बार सुनाना चाहती थी। दिल के हाथों मज़बूर होकर उसने वह मुड़ा हुआ कागज़ खोला। कम्पार्टमेंट की हल्की पीली रोशनी में एक बार फिरसे उसकी निगाहें उस कागज़ पर लिखे शब्दों के साथ दौड़ती चली गयीं।

बेटा, जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकमनाएं!

माँ के प्यार और छुटकी की ढ़ेरों बधाइयों के साथ मेरा आशीर्वाद तुम तक जरूर पहुँच गया होगा!

ईश्वर तुम्हें खूब तरक्की और सम्मान प्रदान करें, जीवन में बहुत नाम कमाओ।

वैसे तो यहाँ सब ठीक-ठाक ही है, बस तुम्हारी माँ थोड़ी-सी चिंतित रहती है। दिन का कोई भी पहर हो, या फिर रात की कोई भी घड़ी, जब देखो तुम्हारे बारे में ही बात करती रहती है।

गुज़रे तीन सालों में तीन हज़ार से भी ज़्यादा बार उसने तुम्हारी किलकारियों से लेकर, मासूम शरारतों तक की सारी बातें कह ड़ाली होंगी! तुम्हारे इंतज़ार में उसकी आँखें हमेशा चौखट पर ही टिकी रहती हैं। हवाओं के झोंके जब भी दरवाज़े को धकेलते हैं तो कहती है, ‘ऐसा लगता है ये हवाऐं, दिल्ली से मेरे करण की ख़ैर-ख़बर ला रही हैं,’ कभी-कभी तो वह तुम्हें एक नज़र देखने को तड़प उठती है। माँ है न, इसलिए अपने केलेजे के टुकड़े में ध्यान पड़ा ही रहता है।

अब मेरा क्या है, मैं तो बाप हूँ, समझ लेता हूँ कि तुम्हें समय नहीं मिला होगा! लेकिन तुम्हारी माँ का क्या? कैसे समझाऊं उसे? कहती है, ‘ऐसी बैरन नौकरी भी क्या जो माँ की ममता को भी न समझ सके!’

तुम्हें कई बार पहले भी लिखा था कि थोड़ा वक़्त निकालकर एक चक्कर यहाँ भी लगा जाओ। एक बार आकर उसकी सुध ले लोगे तो शायद उसका दिल हल्का हो जाए, बाक़ी जैसा तुम उचित समझो!

तुम्हारे इंतज़ार में,
माँ, छुटकी और पापा।

चिट्ठी पढ़कर एक बार फिर उसकी आँखें नम हो गयी, गला फिरसे रुँध-सा गया, दिल में अपनों का दर्द बादलों-सा घुमड़कर उठने लगा। उसका दिल किया कि काश पंख होते तो वह झट से घर पहुँच जाता, और माँ को गले लगाकर उसका दर्द और चिंता सब खत्म कर देता, परिवार के बारे में सोच-सोचकर वह उदासी के भँवर में डूबता ही चला गया, गहरा और गहरा।

तभी अचानक आसमानी बिजली इतनी ज़ोर से गरजी कि सारा वातावरण दहल गया। बिजली कौंधने की वह आवाज़ इतनी ज़बरदस्त थी, मानों कई सौ बम एक के बाद एक लगातार फटते चले गए हों। बादलों में लगातार गर्जन के साथ बिजली कौंधती ही चली गई। ऐसा लगा मानों बादल फट - फटकर गर्जन के साथ एक के बाद एक ज़मीन पर गिरे जा रहे हों। तुरंत बाद ही बाहर बूँदा-बाँदी शुरू हो गई और मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू कंपार्टमेंट के अन्दर तक आने लगी।

यूँ तो सर्दियों के मौसम में कभी-कभार हल्की-फुल्की बारिश होना आम बात है, मग़र आज इन तेज़ हवाओं, गहराते बादल और लगातर गरजती बिजली को देखकर मौसम के तेवर कुछ अलग ही लग रहे थे। फिर देखते-ही-देखते वह हल्की बूँदा-बाँदी तेज़ मूसलाधार बारिश में बदल गई। pसर्दियों के दिनों में मौसम का बदलता हुआ ऐसा रूप पहली बार ही देखने को मिल रहा था। मूसलाधार बारिश की बोछारें कॉम्पार्टमेंट के अन्दर तक महसूस हो रही थी। कॉम्पार्टमेंट की छत और खिड़कियाँ थर-थराने लगी, ज़ाहिर था कि बूँदों के साथ ओले भी गिर रहे थे। आज तो मौसम के रंग-ढंग कुछ असाधारण ही लग रहे थे। गर्म कपड़े पहनने के बावज़ूद भी यात्री अपने-अपने कंबल और लोही में सुकड़ते जा रहे थे। करण भी अपनी जैकिट में हाथ छुपाकर एक़दम सिकुड़ कर बैठ गया।

तेज़ हवाओं के साथ मूसलाधार बारिश और बिजली की गड़गड़ाहट को देखकर लग ही नहीं रहा था कि यह सर्दियों का मौसम है। इस तरह से बारिश का बरसना तो मानसून को भी मात दे रहा था। लगातार तेज़ बरसती बारिश से सर्दी और बढ़ गयी थी। कम्पार्टमेंट की खिड़कियों के शीशों पर तो जैसे ओस ही जमने लगी। सभी मुसाफ़िर सहमे-से उस सफ़र में एक दूसरे के साथ बने रहे। अंधेरे तूफ़ानी और बरसाती मौसम में अपनी एकमात्र हेड्लाइट की रोशनी चमकाती हुई वह ट्रैन अपनी मंजिल की ओर धड़धड़ाती हुई दौड़ी चली जा रही थी।

लगभग पौना घण्टे बाद जाकर मौसम थोड़ा शान्त हुआ। स्थिति का जायज़ा लेने के लिए करण ने फिरसे खिड़की को थोड़ा ऊपर सरकाया। हालाँकि बारिश बन्द हो चुकी थी लेकिन हवाओं में नमी अभी-भी बरकरार थी। ट्रैन एक छोटी-सी पहाड़ी के घुमावदार मोड़ पर चल रही थी। वह अपनी खिड़की से ही उस घूमती हुई सारी ट्रैन को देख पा रहा था। धुआँ छोड़ता हुआ इंजन सामने पहाड़ी में बनी एक सुरंग में समाता जा रहा था। वह उस सुरंग को देखते ही पहचान गया। रामगढ़ स्टेशन अब कुछ ही समय की दूरी पर था।

“भाई साहब! अगला स्टेशन रामगढ़ ही है न?” सामने बैठे उसी यात्री से करण ने अपना संशय दूर करना चाहा।

उस यात्री ने एक नज़र करण को देखा फिर संक्षिप्त में जवाब दिया, “हाँ!”

बोलने-चालने के मामले में वह यात्री कंजूस ही जान पड़ रहा था। तमाम सफ़र में वह चुप ही रहा था। करण ने अपना बैग उठाया और उतरने के लिए बोगी के दरवाज़े की ओर बढ़ चला।

ट्रैन उस टनल को पार कर दूसरी ओर पहुँची। उधर का नज़ारा बिल्कुल ही विपरीत था। चारों ओर छाए कोहरे के कारण कुछ भी दिखाई देना लगभग मुश्किल था। बादलों- सा उफनता कोहरा सबकुछ अपनी आगोश में लेना चाहता था। लेकिन बिना किसी परवाह के ट्रैन उस कोहरे को चीरती हुई उसमें समाती चली गई। ऐसा जान पड़ रहा था जैसे ट्रैन बादलों से होकर गुज़र रही हो!

करण ने अपनी घड़ी पर नज़र ड़ाली। वह 6 बजकर 30 मिनट दिखा रही थी और सेकण्ड वाला काँटा 3 पर ही अटका हुआ था। उसकी घड़ी किसी तकनीकी ख़राबी के चलते बन्द पड़ी थी। यूँ अचानक अपनी घड़ी को बन्द स्थिति में देख उसे बड़ा दुख हुआ। घड़ी को अभी महीना भर भी नहीं हुआ था, और वैसे भी वह प्रशान्त का दिया तोहफ़ा थी। घड़ी को मरम्मत कराना पड़ेगा यह सोचकर वह ट्रैन से उतरने की तैयारी करने लगा।

ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी और कुछ देर बाद जैसे ही ट्रैन उस घने कोहरे से बाहर निकली तो सामने धुँधली रोशनी में एक प्लेटफॉर्म नज़र आने लगा। यह रामगढ़ स्टेशन था जो करण की मंजिल का पहला पायदान था। धीरे-धीरे रेंगती हुई ट्रैन उस प्लेटफार्म पर जाकर रुक गई।

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to be continued. . . . .