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बाबा श्याम (A Classic Figure)
1947, अपने आप में यह साल बहुत बड़ा महत्व रखता है। मेरे लिए यह एक और वजह से खास है। 3 जुलाई 1947, वो दिन जब मेरे दादाजी का जन्म हुआ। बाबा अपने चार भाइयों में सबसे छोटे थे। कहीं सुना था बड़ों के पास बैठ कर बात करने से ज्ञान बढ़ता है। यह वो ज्ञान नहीं है जो हम पढ़ते हैं या सीखते हैं, शायद हम इसे ज्ञान भी न कहे। मेरी नज़र में तो ये रोमांच जैसा है। एक बहुत ही आम जिंदगी के कुछ पहलू। आज कल हम सबको कोई न कोई चाहिए अपनी बात सुनाने के लिए, चाहे सामने वाला बंदा हमारी बात समझे या ना समझे, हमे तो अपना मन हल्का करना होता है। क्या यही बात हमारे बड़ों पर लागू नहीं होती? मैं तो उस इंसान की बात कर रहा हूं जिसने सालों से किसी से बात नहीं की थी, मेरे दादाजी।

मैं उन्हें बाबा श्याम कहता था। उनका नाम श्याम सिंह था और रिश्ते में तो वो मेरे बाबा ही था। सिर्फ वो ही मुझे पूरे घर में मेरे पूरे नाम से बुलाते थे, पता नहीं क्यों, शायद इज्ज़त दे रहे थे। वो ज़्यादा किसी से बात नहीं करते थे जब तक उन्हें कोई ढंका व्यक्ति न मिलता।

मेरे बाबा रिश्ते निभाने में कोई बहुत माहिर इंसान तो नहीं थे। उन्हें कभी किसी ने सिखाया ही नहीं। वो 12 साल के थे जब उनकी मां [ श्रीमती भूदेवी ] का स्वर्गवास हो गया। मैंने उनसे पूछा क्या उन्हे वो याद हैं? तो उन्होंने बताया कि, " ज़्यादा तो नहीं पर पतली सी थी वो थोड़ी, नाच गाना या फिर आज कल जैसे शौक मौज कुछ भी नहीं रखती थीं, सिर्फ घर तक ही सीमित रहती थीं। "
मैंने पूछा आपको उनकी याद आती है क्या? उन्होंने वो जवाब दिया, जो मैंने तो कभी नहीं सोचा था। उन्होंने कहा, 
" नहीं, मैंने कभी उनके साथ इतना वक्त बिताया ही नहीं...