" मची तबाही है "
" मची तबाही है "
देख ले ऐ इन्सान अपनी करतूतों को..
जहाँ तक तेरी नज़रें जाएंगी, भीषण मची तबाही है..!
अब , अपनी ही बर्बादी का तू ईनाम ले ले..!
बहुत दोहन कर लिया तूने मेरा , रुदन स्वर में कहा बेचारे प्रकृति ने..!
बहुत अक्लमंद समझते थे न तुम खुद को..
अब देख लो, तुम्हारी कैसी शामत आई है..?
अब तक तू हमें खून के आँसुओं में डुबो रहा था , प्रकृति ने ठहाके लगा कर इठलाई..!
मगर , बेपरवाह, बेग़ैरत मानव , अब हमसे , तुम्हारे लुटने एवं तबीयत से पिटने की बारी आई है..!
चारों ओर जगह-जगह जग में मचा हाहाकार है..!
त्राहि-त्राहि हर धरती का कोना-कोना हुआ बेहाल है..!
अब तक तुम्हारी ज्यादती के शिकार हम ( प्रकृत्ति ) ने सदियों से झेले अत्यन्त अत्याचार हैं..!
जब हम अपने पर आए हैं तो देख ले कैसे तू और तेरा अस्तित्व तिनकों की तरह बिखर गया है..!
मौन रहकर हम सब कुछ सहे जा रहे थे..!
कि किसी दिन तो तुम्हारी अक्ल आएगी और तुमने क्या कर डाला
तुमने प्रकृति के साथ यह कभी तो समझ पाओगे..!
परंतु तुम ने विकास के नाम पर विनाश लीलाओं का आह्वान किया है..!
जो माफ़ कर देने के लायक कतई नहीं रहे हो..
अपने ही हाथों से तुम सब ने अपनी मौत बुलाई है..!
अभी तो यह मंजर सिर्फ़ एकमात्र झलकी है..!
आगे-आगे देखते जाओ थाम कर हाथों में अपनी सांसें..
तुम्हारी जिन्दगी को बेज़ार , बेकार , और हमेशा के लिए बर्बाद जब तक न कर दूँ..!
तुम्हारे आशियानों को धूमिल कर मिट्टी में जब तक मिला नहीं देते तब तक..
मैं धरती, अम्बर, जलजा, वायु एवं अग्नि हमें हमारे अपमान की कसम है..!
किसी भी कीमत पर अब हम कुदरत शांत नहीं होंगे..!
इसकी, कीमतें , तो मूर्ख मानव जाति को बेहिसाब तरीके से अवश्य ही चुकाने होंगे..!
हाँ , अवश्य ही चुकाने होंगे..!
तुम सबके गुरूर को , मैं प्रकृति अपने कदमों से कुचल कर अपने माथे पर विजय पाने का तिलक अवश्य लगाऊँगी..!
मैं जीवन दायनी हूँ मगर अफ़सोस है कि तुम ने हमें विनाशायनी बनने को विवश कर दिया..!
हरे-भरे वन मेरी सुरक्षा कवच एवं खूबसूरत आवरण थे जो तुम ने मुझ से हर लिया..!
वन्य जीवों के रहवास स्थल भी थे..
उनसे उनके भोजन तक तुम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए छीन लिया है..!
गर बुद्धि के बल पर संसार को विलुप्त होने के लिए तुम सब ने बाद्धय किया है तो यही
सही..!
तुम जैसे वहशियों का विनाश करने का दायित्व भी हम प्रकृति के पास है..!
तुम अपने दायरे से बाहर आकर आक्रांत मचा सकते हो तो हम से भी गलत उम्मींद हरगिज़ नहीं रखो कि हम अपने दायरे में रहें..!
हमारे दायरे में तुम लोगों ने सेंध लगाई है..!
जरूरत से ज्यादा हम पर मनुष्यों ने प्रकृतियों का असीमित भारों से लाद दिया और अनगिनत वार कर दिया है कि अब हमें तुम तक पहुंचने में कोई झिझक नहीं है..!
चुन-चुन कर लोगों को उनके गुनाहों की बेदर्दी से हमारे द्वारा तमाम गुनहगारों को सजा दी जाएगी..!
हाँ , सजा, अवश्य ही दी जाएगी..!
🥀 teres@lways 🥀
देख ले ऐ इन्सान अपनी करतूतों को..
जहाँ तक तेरी नज़रें जाएंगी, भीषण मची तबाही है..!
अब , अपनी ही बर्बादी का तू ईनाम ले ले..!
बहुत दोहन कर लिया तूने मेरा , रुदन स्वर में कहा बेचारे प्रकृति ने..!
बहुत अक्लमंद समझते थे न तुम खुद को..
अब देख लो, तुम्हारी कैसी शामत आई है..?
अब तक तू हमें खून के आँसुओं में डुबो रहा था , प्रकृति ने ठहाके लगा कर इठलाई..!
मगर , बेपरवाह, बेग़ैरत मानव , अब हमसे , तुम्हारे लुटने एवं तबीयत से पिटने की बारी आई है..!
चारों ओर जगह-जगह जग में मचा हाहाकार है..!
त्राहि-त्राहि हर धरती का कोना-कोना हुआ बेहाल है..!
अब तक तुम्हारी ज्यादती के शिकार हम ( प्रकृत्ति ) ने सदियों से झेले अत्यन्त अत्याचार हैं..!
जब हम अपने पर आए हैं तो देख ले कैसे तू और तेरा अस्तित्व तिनकों की तरह बिखर गया है..!
मौन रहकर हम सब कुछ सहे जा रहे थे..!
कि किसी दिन तो तुम्हारी अक्ल आएगी और तुमने क्या कर डाला
तुमने प्रकृति के साथ यह कभी तो समझ पाओगे..!
परंतु तुम ने विकास के नाम पर विनाश लीलाओं का आह्वान किया है..!
जो माफ़ कर देने के लायक कतई नहीं रहे हो..
अपने ही हाथों से तुम सब ने अपनी मौत बुलाई है..!
अभी तो यह मंजर सिर्फ़ एकमात्र झलकी है..!
आगे-आगे देखते जाओ थाम कर हाथों में अपनी सांसें..
तुम्हारी जिन्दगी को बेज़ार , बेकार , और हमेशा के लिए बर्बाद जब तक न कर दूँ..!
तुम्हारे आशियानों को धूमिल कर मिट्टी में जब तक मिला नहीं देते तब तक..
मैं धरती, अम्बर, जलजा, वायु एवं अग्नि हमें हमारे अपमान की कसम है..!
किसी भी कीमत पर अब हम कुदरत शांत नहीं होंगे..!
इसकी, कीमतें , तो मूर्ख मानव जाति को बेहिसाब तरीके से अवश्य ही चुकाने होंगे..!
हाँ , अवश्य ही चुकाने होंगे..!
तुम सबके गुरूर को , मैं प्रकृति अपने कदमों से कुचल कर अपने माथे पर विजय पाने का तिलक अवश्य लगाऊँगी..!
मैं जीवन दायनी हूँ मगर अफ़सोस है कि तुम ने हमें विनाशायनी बनने को विवश कर दिया..!
हरे-भरे वन मेरी सुरक्षा कवच एवं खूबसूरत आवरण थे जो तुम ने मुझ से हर लिया..!
वन्य जीवों के रहवास स्थल भी थे..
उनसे उनके भोजन तक तुम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए छीन लिया है..!
गर बुद्धि के बल पर संसार को विलुप्त होने के लिए तुम सब ने बाद्धय किया है तो यही
सही..!
तुम जैसे वहशियों का विनाश करने का दायित्व भी हम प्रकृति के पास है..!
तुम अपने दायरे से बाहर आकर आक्रांत मचा सकते हो तो हम से भी गलत उम्मींद हरगिज़ नहीं रखो कि हम अपने दायरे में रहें..!
हमारे दायरे में तुम लोगों ने सेंध लगाई है..!
जरूरत से ज्यादा हम पर मनुष्यों ने प्रकृतियों का असीमित भारों से लाद दिया और अनगिनत वार कर दिया है कि अब हमें तुम तक पहुंचने में कोई झिझक नहीं है..!
चुन-चुन कर लोगों को उनके गुनाहों की बेदर्दी से हमारे द्वारा तमाम गुनहगारों को सजा दी जाएगी..!
हाँ , सजा, अवश्य ही दी जाएगी..!
🥀 teres@lways 🥀
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