डायरी मेरी सुनीता....
डायरी मेरी सुनीता....
सुनीता आज मैं अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभा चुका हूं| अपने सारे बंधनों से मुक्ति पा चुका हूं| अब मेरा पूरा समय सिर्फ तुम्हारा है, सिर्फ तुम्हारा..... मुझे आज भी याद है तुम्हारी और मेरी पहली मुलाकात| तुम्हारी पहली झलक, जिसे देख कर भी मुझे अनदेखा करना पड़ा|
तुम 20 बरस की नासमझ लड़की और मैं 25 बरस का| सरकारी नौकरी को लगे हुए पूरे 1 साल भी नहीं हुआ था, कि बाबूजी शादी पर जोर देने लगे| मैंने भी बाबूजी के सामने हार मान ली और शादी के लिए मान गया | मैंने , बाबू जी से शादी के लिए हाँ तो कर दी, पर मेरा मन विचलित रहता, पता नहीं मेरी जीवनसंगिनी कैसी होगी!! मुझे कभी समझेगी भी या नहीं| इन्हीं विचारों में डूबा रहता मैं|
एक दिन बाबूजी तुम्हारे और मेरे रिश्ते की बात, मां से करने लगे| मैने सब सुन लिया और मेरी लाख मिन्नतें करने पर बाबूजी ने मुझे, तुम्हें देखने और तुम्हारे गांव जाने की अनुमति दी| मैं, बाबूजी और मां, तीनों ही तुम्हारे छोटे से गांव के लिए निकल पडे| पुरे रास्ते तुम्हे लेकर मेरे मन मे कल्पनाए बनती रही| खेतों की मेड़ पर चलते-चलते तुम्हारे छोटे से घर में आ ही पहुंचे| तुम्हारे मां-बाबूजी ने तो हम तीनों को देखकर हमारी आव भगत मे लग गये, पर मैंरे मन में सिर्फ एक विचार था, पता नहीं तुम कैसी होगी ??
फिर तुम आई पायल छम-छम करते, लंबा घूंघट डाले| मैं तो तुम्हें देख नहीं पाया पर मां-बाबूजी को तुम्हारा यही रूप बहुत पसंद आया| पता नहीं कैसे उन्होंने तुम्हें घूंघट मे हीं परख लिया, कि तुम ही उनकी बहू बनने के सारे दायित्वों को पूरा करोगी, पर मेरे मन की दुविधा अभी भी वैसी की वैसी थी| आखिर तुम दिखती कैसी हो ?? मां-बाबूजी तो हमारी शादी की बातों में लग गए| मैं शांत सा बैठा कि आखिर मैं क्या करूं कि तुम्हें देख पाऊं!!! मैं तुमसे, तुम्हारे बारे में जानना चाहता था| तुमसे बात करना चाहता था| शादी के सारे रीति-रिवाजो के बारे मे बात हुई, अब हमारे जाने का समय आ चुका था, पर मेरी नजर अभी भी तुम्हे ही ढूंढ रही थी| तुम्हारे घर से निकलते ही मन किया, कि एक बार पीछे मुड़कर तुम्हें देखने की एक आखिरी कोशिश करूं|
मैं पीछे की तरफ पलटा, तुम भी अपने हाथो से अपना लंबा घूंघट उठाकर मुझे ही देखने की कोशिश कर रही थी| मैं यह तो नहीं जानता कि तुम, मुझे देख पाई या नहीं, पर मैंने, तुम्हें देख लिया| मुझे, देखने की चाह में तुम्हारी नजर इधर-उधर घूम रही थी| तुम्हारा मासूमियत भरा चेहरा, काले काजल से भरी तुम्हारी आंखें... जिनमे, मैंने अपनी जगह, तुम्हारे जीवन में देख ली थी|
दिन बीत गए और 1 महीने के अंदर ही हमारी शादी हो गई| नई नवेली दुल्हन का मेरे घर में भी बड़ी खुशियों के साथ स्वागत किया गया| पूरे रीति-रिवाजो को निभाने के बाद, मेरे घरवालो को तुम्हे, मुझे सोपँने की फुर्सत मिली| लाल साड़ी लाल चुनरी ओढे हुए तुम, मेरे कमरे में आई| तुम्हारे लंबा घूंघट को हटाने का हक सिर्फ मेरा था| तुम्हारे कमरे के अंदर आते ही तुम्हारे कदम रुक गए| मै, तुम्हारी तरफ बढा और दरवाजा बंद कर तुम्हारे हाथ को मैंने पहली बार छुआ| मेरी, पहली छुअन से तुम्हारे अंदर की वो अजीब सी घबराहट मै, समझ गया था| मैंने तुम्हें अपनी खटीया तक हाथ पकड कर लाकर बैठाया| जिस चेहरे को देखने का हक सिर्फ मुझे था, उस चेहरे को मैं पूरे हक़ के साथ देखना चाहता था| मैंने तुम्हारा घूंघट उठाया| तुम शर्माई सी नजरे झुकाए बैठी रही और मैं तो...
मैं तो तुम्हे देखता रहा| तुमने एक बार भी नजरें ऊपर कर मेरी तरफ नहीं देखा| तुम खटिया में बैठे ही दीवार से टिक कर सो गई और मैं पूरी रात तुमको निहारता रहा| तुम्हारा सांवला रंग , तीखी नाक, चेहरे की मासूमियत, मुझे बहुत प्यारी लगी| पता नहीं फिर कब सुबह हो गई और तुम्हारी आंख खुल गई| यह पहली बार था, जब तुमने मुझे देखा और मुस्कुरा के कमरे से बाहर जाने के लिए खटिया से उठने लगी| तुम्हारे हाथों को पकड़कर जब मैंने तुम्हें अपनी तरफ खींचा, तब मैंने पहली बार तुम्हारी कोमलता महसूस की थी| तुम्हारी खुशबू मुझ में समाने लगी थी, पर तुम भी कहां कम थी, आखिर धक्का देकर तुम कमरे से बाहर चली ही गई|
ना चाहते हुए भी मुझे तुमसे शादी के दूसरे दिन से ही 5 दिन तक तुमसे दूर रहना पड़ा| हर महिला की तरह ही तुम्हारी भी वही माहवारी के कारण| आखिर गांव-गांव ही होता है| वहां के कटु रिवाज और बंधनों को मानना हीं पड़ता है| मैं यह तो नहीं कह सकता, कि तुम्हारे वो 5 दिन जो हर महीने तुम्हें परेशान करने आते हैं, उन्हे मैं समझ सकता हूं| इस दुनिया का कोई भी आदमी ये नहीं समझ सकता, पर अफसोस इस बात का...
सुनीता आज मैं अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभा चुका हूं| अपने सारे बंधनों से मुक्ति पा चुका हूं| अब मेरा पूरा समय सिर्फ तुम्हारा है, सिर्फ तुम्हारा..... मुझे आज भी याद है तुम्हारी और मेरी पहली मुलाकात| तुम्हारी पहली झलक, जिसे देख कर भी मुझे अनदेखा करना पड़ा|
तुम 20 बरस की नासमझ लड़की और मैं 25 बरस का| सरकारी नौकरी को लगे हुए पूरे 1 साल भी नहीं हुआ था, कि बाबूजी शादी पर जोर देने लगे| मैंने भी बाबूजी के सामने हार मान ली और शादी के लिए मान गया | मैंने , बाबू जी से शादी के लिए हाँ तो कर दी, पर मेरा मन विचलित रहता, पता नहीं मेरी जीवनसंगिनी कैसी होगी!! मुझे कभी समझेगी भी या नहीं| इन्हीं विचारों में डूबा रहता मैं|
एक दिन बाबूजी तुम्हारे और मेरे रिश्ते की बात, मां से करने लगे| मैने सब सुन लिया और मेरी लाख मिन्नतें करने पर बाबूजी ने मुझे, तुम्हें देखने और तुम्हारे गांव जाने की अनुमति दी| मैं, बाबूजी और मां, तीनों ही तुम्हारे छोटे से गांव के लिए निकल पडे| पुरे रास्ते तुम्हे लेकर मेरे मन मे कल्पनाए बनती रही| खेतों की मेड़ पर चलते-चलते तुम्हारे छोटे से घर में आ ही पहुंचे| तुम्हारे मां-बाबूजी ने तो हम तीनों को देखकर हमारी आव भगत मे लग गये, पर मैंरे मन में सिर्फ एक विचार था, पता नहीं तुम कैसी होगी ??
फिर तुम आई पायल छम-छम करते, लंबा घूंघट डाले| मैं तो तुम्हें देख नहीं पाया पर मां-बाबूजी को तुम्हारा यही रूप बहुत पसंद आया| पता नहीं कैसे उन्होंने तुम्हें घूंघट मे हीं परख लिया, कि तुम ही उनकी बहू बनने के सारे दायित्वों को पूरा करोगी, पर मेरे मन की दुविधा अभी भी वैसी की वैसी थी| आखिर तुम दिखती कैसी हो ?? मां-बाबूजी तो हमारी शादी की बातों में लग गए| मैं शांत सा बैठा कि आखिर मैं क्या करूं कि तुम्हें देख पाऊं!!! मैं तुमसे, तुम्हारे बारे में जानना चाहता था| तुमसे बात करना चाहता था| शादी के सारे रीति-रिवाजो के बारे मे बात हुई, अब हमारे जाने का समय आ चुका था, पर मेरी नजर अभी भी तुम्हे ही ढूंढ रही थी| तुम्हारे घर से निकलते ही मन किया, कि एक बार पीछे मुड़कर तुम्हें देखने की एक आखिरी कोशिश करूं|
मैं पीछे की तरफ पलटा, तुम भी अपने हाथो से अपना लंबा घूंघट उठाकर मुझे ही देखने की कोशिश कर रही थी| मैं यह तो नहीं जानता कि तुम, मुझे देख पाई या नहीं, पर मैंने, तुम्हें देख लिया| मुझे, देखने की चाह में तुम्हारी नजर इधर-उधर घूम रही थी| तुम्हारा मासूमियत भरा चेहरा, काले काजल से भरी तुम्हारी आंखें... जिनमे, मैंने अपनी जगह, तुम्हारे जीवन में देख ली थी|
दिन बीत गए और 1 महीने के अंदर ही हमारी शादी हो गई| नई नवेली दुल्हन का मेरे घर में भी बड़ी खुशियों के साथ स्वागत किया गया| पूरे रीति-रिवाजो को निभाने के बाद, मेरे घरवालो को तुम्हे, मुझे सोपँने की फुर्सत मिली| लाल साड़ी लाल चुनरी ओढे हुए तुम, मेरे कमरे में आई| तुम्हारे लंबा घूंघट को हटाने का हक सिर्फ मेरा था| तुम्हारे कमरे के अंदर आते ही तुम्हारे कदम रुक गए| मै, तुम्हारी तरफ बढा और दरवाजा बंद कर तुम्हारे हाथ को मैंने पहली बार छुआ| मेरी, पहली छुअन से तुम्हारे अंदर की वो अजीब सी घबराहट मै, समझ गया था| मैंने तुम्हें अपनी खटीया तक हाथ पकड कर लाकर बैठाया| जिस चेहरे को देखने का हक सिर्फ मुझे था, उस चेहरे को मैं पूरे हक़ के साथ देखना चाहता था| मैंने तुम्हारा घूंघट उठाया| तुम शर्माई सी नजरे झुकाए बैठी रही और मैं तो...
मैं तो तुम्हे देखता रहा| तुमने एक बार भी नजरें ऊपर कर मेरी तरफ नहीं देखा| तुम खटिया में बैठे ही दीवार से टिक कर सो गई और मैं पूरी रात तुमको निहारता रहा| तुम्हारा सांवला रंग , तीखी नाक, चेहरे की मासूमियत, मुझे बहुत प्यारी लगी| पता नहीं फिर कब सुबह हो गई और तुम्हारी आंख खुल गई| यह पहली बार था, जब तुमने मुझे देखा और मुस्कुरा के कमरे से बाहर जाने के लिए खटिया से उठने लगी| तुम्हारे हाथों को पकड़कर जब मैंने तुम्हें अपनी तरफ खींचा, तब मैंने पहली बार तुम्हारी कोमलता महसूस की थी| तुम्हारी खुशबू मुझ में समाने लगी थी, पर तुम भी कहां कम थी, आखिर धक्का देकर तुम कमरे से बाहर चली ही गई|
ना चाहते हुए भी मुझे तुमसे शादी के दूसरे दिन से ही 5 दिन तक तुमसे दूर रहना पड़ा| हर महिला की तरह ही तुम्हारी भी वही माहवारी के कारण| आखिर गांव-गांव ही होता है| वहां के कटु रिवाज और बंधनों को मानना हीं पड़ता है| मैं यह तो नहीं कह सकता, कि तुम्हारे वो 5 दिन जो हर महीने तुम्हें परेशान करने आते हैं, उन्हे मैं समझ सकता हूं| इस दुनिया का कोई भी आदमी ये नहीं समझ सकता, पर अफसोस इस बात का...