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एक ख़त
#ख़त

कैसे हो

सच कहूँ इस दर्द के पीछे ऊमीद भी तुम्हीं से है
बस उसी ऊमीद सदक़ा फिर से क़लम थाम ली
कुछ दर्द कुछ अश्क़ रोज़ बहते है बहने देता हूँ
इस ऊमीद से की तेरे हाथ इन तक पहुँच जाए
रातें निकल रही है जैसे की दिन के उजालों हों
चहरे पर हँसी मानो की जबरदस्ती कर रही हो
क्या करूँ इस चहरे पे दर्द को दिखा नहीं सकता
बहुत मायने जिम्मेदारियां को लेकर चल रहा हूँ
फिर भी एक ऊमीद मुझे सहारा देती है आ रही
वो भरोसा वो वादे जो हमने किए साथ चलने को
हालात कैसे भी चलेंगे चाहे दूरियां और हो जाएं
वही ऊमीद कभी कभी अश्क़ बन कर लफ्ज़ तो
कभी कभी तो जमीं दोज़ हो जाती है पर मैं नहीं
साथ तेरे दूर तक साथ चलना है बेशक़ दूर से ही
तुम्हें बहुत अज़ीब लगे शायद लगना भी चाहिए
बस एक खत लिखने को दिल चाहा कि तुम पढों
यही ज़रिया जहाँ इस उथल पुथल को लिखा जाए

एक खत🙏🙏


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