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“कुनबा" - प्रथम प्रकरण - #गैर कहीं का!
अब तक आपने जाना कि कैसे एक तरफ तो संतबली के अंधे नशेपन से उसकी पत्नी समेत पूरा परिवार दुखी था, तो उसी मोहल्ले में एक ऐसा भी व्यक्ति था जो जीवन में सब कुछ पाकर भी अधूरा था। जो घर परिवार बसा के भी नहीं बस पाया। ये कहानी असल में संतबली की नहीं बल्कि संतब्ली को जीवन की सही राह दिखाने और उसे प्रभावित करने वाले हमारे एक लौते शर्माजी की है।

खैर ये तो बाद की बात है क्योंकि आजकल तो शर्माजी खुद अपने अस्तित्व की बुनियाद तलाशने में फंसे हुए हैं। हालात अगर बयान करने का प्रयास करें भी तो वो कुछ इस प्रकार होंगे-

"घर धुआं धुआं हो रखा है और आँगन पानी पानी, आँखे खोलो तो आँसू , और कदम बढ़ाओ तो कुल्लेह टूटने की नोबत खड़ी हो जानी है...अरे शर्माजी, कुछ तो शर्म करो, घर की खरियत पे ज़रा तो ध्यान दो, धीरज से काम लो भई, अन्यथा, लाचारी के बोझ में दब कर दबे रह जाओगे।"

"चारो ओर से कुछ न कुछ आक्रमण किये हुए है‌‍ । सता के फेंक मारा है शर्माजी के हालातों ने उन्हें। आठ-आठ औलादों की बेपरवाही से तंग, और खुद की ईमानदारी से पूर्णतया परास्त, बीवी के नखरे, चाल-चलन और वो नालायक भांजा जो ना घर का ना घेर का और तो और जुबां का ढीठ, कतई बिलोट्टा!"

शर्माजी का हाल दशेहरी आम्बी की चुसी हुई गुठली के छितराए हुए रेशे की तरह दिखता नज़र आ रहा था, जो हवा के मंद-मंद, न के बराबर महसूस होने वाले झोंको से लहराता हुआ फडफडा रहा था।

इस पापी पेट का क्या करूँ, इसको तो खिलाना ही पड़ेगा, चाहो या ना चाहो, इसकी सेवा तो करनी ही पड़ेगी। कैसे समझाऊँ इस तड़पती रूह को, अब नहीं... बस और नहीं। पर ये क्यों सुनेगी मेरी... मुझ कमीण की सुनै कोन है...? बस पागल बनाए जावैं हैं सब... कतई बेकूप मान रखा है ।

"खुद की आशाओं को बिखरते देख, औलाद को बिछडते देख सीना पसीज जाता है। सब व्यर्थ नजर आता है अब तो।

मैं लाचार बेबस फिर एक बार गुहार लगाने की चेष्टा करता हूँ कि, "इज़हाद कर दो इस निरसता से ग्रस्त शरीर को। और कितना लुटना बचा है अभी। सोच तो समाज जैसे खरीद के बैठा हो। ज़हर घोल के नीला कर दिया है पापियों ने आत्मा तक को। मेरी मज़लूम जवानी, ख़ाक होती चली गयी जैसे ही भ्या का कोहराम मेरे जीवन का हिस्सा बना। मैं गलत नहीं सोचता था। अकाल का अंधा था जो पन्डतायन के इश्क़ का शिकार हो गया।"

"कुछ ऐसे ही बड़बड़ाता रहता है अपना पंडित आजकल... करे भी क्या...? खेल तो खुदगर्ज़ ख़ुदा का है... जो ना तो किसी की सुनता है और ना ही किसी से मिलता है। सिर्फ ग्रंथो या विचारों से सच की प्राप्ति बड़ी ही दुर्लभ नज़र आती है... ये लाचार जीवन नीरसता से ग्रस्त लड़खड़ाता हुआ एक बार फिर अर्ज़ी लगता है, भरे बाज़ार में, बीच सहर, दिन-दहाड़े कुछ पाने की चाहत में।"

अर्जी-

खुजलाहट
सी एक ऐसी
पनप गयी
कि
इस्थिति
घर परिवार
के समक्ष
विलुप्त
हो गयी
मैं असमर्थ हूँ ।
मेरे शब्द,
अल्फ़ाज़
चुप्पी के
ग़ुलाम मात्र ही रह गए हैं ।
मैं राजनैतिक नहीं हूँ,
मैं पारिवारिक भी नही हूँ,
पर सामाजिक होने की
चेष्टा करता हूँ ।

अपनी कश्ती का
खिवैया हूँ,
अवेहलनाओं से
ग्रस्त हूँ,
इनकार हूँ,
बस यूं ही
एक अनजान सा
परस्त विचार हूँ ।
नाकामयाबी की लहरों के
थपेडों का शिकार हूँ ।
मैं औज़ार हूँ,
कलम हूँ
गहना हूँ
हिम्मत का जरिया भी हूँ,
पर बेरोजगार हूँ ।
बुलंद हूँ,
बहिष्कार का
शिकार भी हूँ
पर शांत हूँ
और
खुश भी हूँ ...
मैं असमर्थ हूँ।
© Kunba_The Hellish Vision Show

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