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मायाजाल
कंचन नगरी से होते हुए मंगल और श्री जंगल के रास्ते से भटक कर पूर्व दिशा की ओर बढ़ते चले गए।
सूरज की पहली किरण के साथ आखिरी किरण उस दिन की कब आए यह रास्ते में पता ही नहीं चला सूरज की आखरी किरण नदी जल को स्पर्श करते हुए वातावरण को लालीमय कर मनोरम दृश्य स्थापित कर रही थी।

इसी बीच श्री का ध्यान नदी जल में एक बहते हुए पीपल के पत्ते पर पड़ता है जिस पर चीटियों का एक पूरा परिवार समाहिता था।

नदी की मंद मंद बहते हुए जलधारा वह पीपल का पत्ता नाव बनकर उनके लिए बहता जा रहा था किसी किनारे की तलाश में,

नारी जाति हृदय से बहुत पवन और पवित्र होती है ममता की अटूट मूर्ति होती हैं भला श्री इससे कैसे अछूती रह सकती है।

इसी उपरांत श्री मंगल से उस पीपल के पत्ते को जिस पर चीटियों का पूरा परिवार समाहित है उसे किनारे पर सकुशल लाने की बात करती है।

नदी का जल गहरा था बिना किसी की परवाह करते हुए भी उस नदी जल में उतर जाता है और पत्ते की तरफ बढ़ने लगता है जैसे-जैसे वह पत्ते के करीब पहुंचता है तो पत्ता नदी के जलधारा के बीच पहुंचने लगता है अब तो मंगल का सिर्फ सिर के बाल ही दिखाई पड़ रहे थे श्री किनारे पर बैठकर बहुत ही चिंतित और उदास हो रही थी।

मंगल पूरी तरह से कोशिश करने में लगा हुआ था कि बिना जल में तेज हलचल मचाए हुए उस पीपल के पत्ते को चीटियों के सपरिवार सहित किनारे पर ला सकूँ , पर वह विफल होता जा रहा था!
अब तो मंगल पुरी तरह से नदी जल में डूब चुका था संध्या का भी समय हो रहा था....
मंगल ने अपने सुझ बूझ के साथ जलधारा के बीच जल के अंदर खुद को रोक कर गोल गोल घूमना शुरू कर दिया जिससे नदी में एक तीव्र जलधारा उत्पन्न हुआ और वह नदी के बहाव को रोकते हुए उस पीपल के पत्ते को किनारे की ओर धकेलना प्रारंभ कर दिया जिस किनारे पर श्री बैठी थी।

अगर मंगल समय रहते ऐसा न करता तो वह पीपल का...