"गुलाबी साईकिल"
"तुम्हारी इतनी हिम्मत.???? छोड़ो उसकी साइकिल... और आइंदा इसे हाथ मत लगाना।" मानव को फटकार कर रिचा के पापा उसकी साइकिल घर ले आए।
"रिच्च्चा.... रिच्च्च्चा.... माया... रिचा....माआआया"
आवाज़ सुनकर माया छत से दौड़ी-दौड़ी आई। "क्या हुआ?? क्यों चिल्ला रहे हो???"
"कहां थीं तुम..???और रिचा कहां है??" गुस्से से आग बबूला हुए 'राज वैभव' ने पूछा।
"घर के पर्दे धोये थे। बस वही सुखाने... धूप में डालने गई थी। एक संडे का ही तो दिन मिलता है।" माया ने उत्तर दिया।
राज:- "रिचा कहां है??"
माया:-"बाहर खेल रही होगी.... अभी तो निकली थी कुछ देर पहले। हुआ क्या है...?? क्यों सुबह-सुबह भड़क रहे हो??
राज:- "अभी 4 दिन भी नहीं हुए हैं ठीक से उसे नयी साईकिल दिलवाए। जानती हो...कौन चला रहा था?? वो....वो.... झोपड़पट्टी वाला मानव। मैं जब बाज़ार से आया तो रिचा की साईकिल पर एसे बैठा हुआ था.... जैसे उसके बाप ने दिलवाई हो। जब मैंने उतरने को कहा तो गुस्से से घूर-घूर के देख रहा था। इस लड़की को ज़रा भी फिक्र है...हमारी इज़्ज़त की???"
राज वैभव की सारी बातें सुनकर माया समझ गई कि आज फिर जनाब का पारा चढ़ा हुआ है। वो शांति से राज के पास जाकर बहुत धीरे और मीठे स्वर में हल्की मुस्कान के साथ बोली "जाने दो न राज......बच्ची है।"
माया के कहे हुए कुछ चार पांच शब्दों का जादू राज वैभव पर एसे चल गया, मानों जैसे तपती तिलमिलाती धूप में पहली बारिश की फुहार। और होता भी क्यों ना भला उसके प्रेम भाव में इतनी क्षमता थी कि राज वैभव का भारी से भारी गुस्सा भी पल भर में शांत हो जाता। उसे राज वैभव को अपने स्नेह और सौहार्द के बंधन में बांध के रखना बहुत अच्छे से आता था।
तभी तो दोनों ने 11 साल पहले परिवार की मर्जी के खिलाफ प्रेम विवाह कर लिया था। राज वैभव मिलिट्री का अवसर था और माया मिलिट्री के ही स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाती थी। जहां-जहां राज वैभव की पोस्टिंग होती। वहीं उनका आशियाना बन जाता।
इस वक्त वो जिस कॉलोनी मे रह रहे थे, उसके बाहरी तरफ गरीब परिवारों के घर थे। पढ़ाई लिखाई तो दूर की बात....वो परिवार इतने भी सक्षम नहीं थे कि अपने बच्चों को अच्छे कपड़े पहना सकें या ठीक से भरण-पोषण कर सकें।
उन्हीं घरों में से एक घर में रहता था 'मानव'। जिसकी मां घर-घर जाकर बर्तन धोती थी और बाप आए दिन बीवी बच्चों को मारता पीटता रहता। उसे दारू और लॉटरी की लत थी, जिसमें बीवी की सारी कमाई बेधड़क लगा देता। मानव और वरुण(मानव का छोटा भाई) को दो टाइम के खाने तक के लिए पैसे नहीं बचते।
जबसे रिचा वहां रहने आई मानव उसको आते जाते देखता रहता। रिचा बहुत ही प्यारी नन्हीं बच्ची थी। सांवला रंग उस पर खूब फबता था। छोटी-मोटी नाक और गोल मटोल से होंठों को खोलकर जब वो हंसती थी तो उसके टूटे-फूटे दांत बाहर की तरफ झांकते।
दुबली पतली सी रिचा को जब सुबह-सुबह मां साफ-सुथरी फ्रॉक पहना देती और उसके बालों की दो चोटियां बांधकर, उनमें रंग बिरंगी गुड़ियों...
"रिच्च्चा.... रिच्च्च्चा.... माया... रिचा....माआआया"
आवाज़ सुनकर माया छत से दौड़ी-दौड़ी आई। "क्या हुआ?? क्यों चिल्ला रहे हो???"
"कहां थीं तुम..???और रिचा कहां है??" गुस्से से आग बबूला हुए 'राज वैभव' ने पूछा।
"घर के पर्दे धोये थे। बस वही सुखाने... धूप में डालने गई थी। एक संडे का ही तो दिन मिलता है।" माया ने उत्तर दिया।
राज:- "रिचा कहां है??"
माया:-"बाहर खेल रही होगी.... अभी तो निकली थी कुछ देर पहले। हुआ क्या है...?? क्यों सुबह-सुबह भड़क रहे हो??
राज:- "अभी 4 दिन भी नहीं हुए हैं ठीक से उसे नयी साईकिल दिलवाए। जानती हो...कौन चला रहा था?? वो....वो.... झोपड़पट्टी वाला मानव। मैं जब बाज़ार से आया तो रिचा की साईकिल पर एसे बैठा हुआ था.... जैसे उसके बाप ने दिलवाई हो। जब मैंने उतरने को कहा तो गुस्से से घूर-घूर के देख रहा था। इस लड़की को ज़रा भी फिक्र है...हमारी इज़्ज़त की???"
राज वैभव की सारी बातें सुनकर माया समझ गई कि आज फिर जनाब का पारा चढ़ा हुआ है। वो शांति से राज के पास जाकर बहुत धीरे और मीठे स्वर में हल्की मुस्कान के साथ बोली "जाने दो न राज......बच्ची है।"
माया के कहे हुए कुछ चार पांच शब्दों का जादू राज वैभव पर एसे चल गया, मानों जैसे तपती तिलमिलाती धूप में पहली बारिश की फुहार। और होता भी क्यों ना भला उसके प्रेम भाव में इतनी क्षमता थी कि राज वैभव का भारी से भारी गुस्सा भी पल भर में शांत हो जाता। उसे राज वैभव को अपने स्नेह और सौहार्द के बंधन में बांध के रखना बहुत अच्छे से आता था।
तभी तो दोनों ने 11 साल पहले परिवार की मर्जी के खिलाफ प्रेम विवाह कर लिया था। राज वैभव मिलिट्री का अवसर था और माया मिलिट्री के ही स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाती थी। जहां-जहां राज वैभव की पोस्टिंग होती। वहीं उनका आशियाना बन जाता।
इस वक्त वो जिस कॉलोनी मे रह रहे थे, उसके बाहरी तरफ गरीब परिवारों के घर थे। पढ़ाई लिखाई तो दूर की बात....वो परिवार इतने भी सक्षम नहीं थे कि अपने बच्चों को अच्छे कपड़े पहना सकें या ठीक से भरण-पोषण कर सकें।
उन्हीं घरों में से एक घर में रहता था 'मानव'। जिसकी मां घर-घर जाकर बर्तन धोती थी और बाप आए दिन बीवी बच्चों को मारता पीटता रहता। उसे दारू और लॉटरी की लत थी, जिसमें बीवी की सारी कमाई बेधड़क लगा देता। मानव और वरुण(मानव का छोटा भाई) को दो टाइम के खाने तक के लिए पैसे नहीं बचते।
जबसे रिचा वहां रहने आई मानव उसको आते जाते देखता रहता। रिचा बहुत ही प्यारी नन्हीं बच्ची थी। सांवला रंग उस पर खूब फबता था। छोटी-मोटी नाक और गोल मटोल से होंठों को खोलकर जब वो हंसती थी तो उसके टूटे-फूटे दांत बाहर की तरफ झांकते।
दुबली पतली सी रिचा को जब सुबह-सुबह मां साफ-सुथरी फ्रॉक पहना देती और उसके बालों की दो चोटियां बांधकर, उनमें रंग बिरंगी गुड़ियों...