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इश्तहार
तारीख़ - 14 जूलाई , समय दोपहर के २ बजे थे। कुछ करने के लिए था नहीं और पढ़ाई में भी कुछ खास मन नहीं लग रहा था तो सोचा क्यूं ना एक नज़र अखबार पर दौडाई जाए।
अख़बार पढ़ा तो सब खबर बस कोरोना वाइरस को लेकर थी। पढ़कर दिमाग की दही जम गई। लेकिन एक खबर के बराबर में वो इश्तहार कुछ ऐसा था कि उसपर नज़र पड़ी तो हट ही ना पाई!
"ऐसा कैसे हो सकता है!?" कुछ चौकन्ना कुछ घबराए हम बस उस इश्तहार में बनी उस तसवीर को देखे जा रहे थे।
घबराहट के मारे सिर से कुछ यूं पसीने छूटने लगे। मैंने वो इश्तहार काट कर अपनी उसी किताब में रख दिया जहां मैंने अपने और सपनों को पंख दिए थे।
वो मेरी पहली किताब का इश्तहार था। मेरी पहली किताब मेरे सपनों की पहली उड़ान। वो इश्तहार मेरे जीवन को जैसे पंख दे गया।
नीचे जब बड़े बड़े अक्षरों में मेरा नाम मैंने देखा तो आंखों में नजाने कितने सपनों ने उम्मीद जगा ली।
वो इश्तहार मेरे जीवन को नई राह दे गया।।
© unnati