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बचपन
हम शायद लगभग 9 वर्ष के थे, मासूमियत और नादानी हमारे मुख पर आभामंडल की तरह विराजमान रहती थी, सबसे ज्यादा अगर हमें सताता तो वह था ङर, लोग अक्सर मुझे ङराते रहते थे, मैं भी खासकर पुलिस से और फाँसी से बहुत ङरता था, कुछ तो महाशय ऐसे थे कि वो मेरे हाथ पर नेलपोलिश लगाकर बोलते थे... कि खून इसने किया है, ले चलो इसे... पुलिस आती होगी... और इसे फाँसी की सजा मिलेगी....
और बस अब इतने में ही हमारे होश उङ जाते थे और हम रोते दहाङते, हमारे नन्हें हाथों को वो इस कदर पकङ लेते थे कि हम भाग न सकें , तथा पुलिस और फाँसी के नाम पर हमें परेशान करते रहते और आनन्द लेते... हम रो पीटकर हाथापाई कर कराके जैसे तैसे उनके चुंगल से छूटकर अपने घर की ओर भग जाते और सबसे अन्दर के कमरे में या तो तख्त के नीचे जा कर छुप जाते थे या कभी अलमारी में बैठकर उसे बन्द कर लेते थे और कभी कपडों की टोकरी में घुस कर मुङ कर ये सोच कर दुबक जाते कि अब पुलिस हमें ढूंढ नहीं पाऐगी और हमें फाँसी नहीं होगी.....
बचपन भी कितना अजीब था नादानी कितनी थी आज उन बातों का जिक्र कभी अन्तर्मन में उठता है तो हसी के फुहारे छूट आते हैं, पहले फाँसी के नाम से जितना ङर था उतना आज प्रत्यक्ष मौत से नहीं और...