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लालिमा
सुबह की झुझलाहट के बीच शाम तक का सफ़र; अंतर्मन में उठते कई सवाल!
हर सुबह ऐसे ही उलझती थी, कहा फुर्सत थी उसे,अपने सवालों के लिए जवाब ढूंढने की; या कहीं मन के कोने में जवाब थे,पर बड़े विद्रोही जवाब; घर था ये,कोई क्रांति का मैदान नहीं!
यहां जीत हार दोनों उसकी थी!
पर ना जीतने की इक्षा थी ना हार का डर!
सुबह से शाम इसी बैचैनी में ,शाम का नज़ारा दिलकश था;आकाश में सूरज के डूबने का नज़ारा;
फिर चाय की प्याली और होंठो में सुगबुगाहट हुई, आज भी जवाब नहीं दिया तुमने!
© MJMishra