...

3 views

बृजेंद्र
ये नहीं होता
तो वो नहीं होता,
और वो भी नहीं होता,
ये 'तो', वाले किस्से-अफसाने,
कभी ख़त्म नहीं होते

गुनगुनाता बृजेंद्र अपनी धुन में खोया, अपने खेत से थोड़ी दूर कहीं चलते जा रहा था। इस समय उसके विशाल फैले खेत खलिहान में वह उसके अकेले दो कदम थे। साथ में कोई नहीं होने से उसके इंतेज़ार की इंतिहा भी बढ़ती जा रही थी। घूमते घूमते वह अपने खेत के नहर में झांक आया, मुंह कुल्ला किया, नहर से थोड़ी दूर उसके दादा का बनाया तालाब जिसमें उसने निजी जायदाद की तख्ती भी लगा रखी थी, वैसे उस तरफ़ कोई आता भी नहीं था।
थोड़ी देर मेड़ के किनारे बैठकर वह फिर चलने लगा।
दिसंबर की ठंडी हवा चल रही थी, कुछ पुराने पत्तों ने मौसम से बगावत किया हुआ है, मानो जमीन पर बिखर कर ठंडी हवाओं को मुंह चिढ़ा रहे हो, जैसे वह पतझड़ से अपना याराना दिखा रहे थे, आज मुर्गे की आवाज़, चिड़ियों के कलरव के साथ, कई कौओ की कांव कांव भी सुनाई दे रही थी, वह सोचने लगा, जैसे कोई मेहमान आता ही हो।साइकिल की ट्रिन ट्रिन, उसकी गौ की आवाज़, दूर से भौंकते कुत्ते की आवाज़, सारा कुछ उस गांव के गांव होने का सबूत देते लगे, यहां दूर दूर तक आधुनिकता का नामो निशान नहीं होने के बावजूद शहर के बने ट्रैक्टर शौक से घर्र घर्र किया करते है। बृजेंद्र के चलते चलते पत्तों की खड़खड़ाहट पूरे माहौल को रोमांचक बनाने लगी। दोनों ओर से हवा के हाथ उंगलियों में उसके होंठ पकड़ अपनी अपनी ओर खींचना चाहते थे। क्या पता किसी तरह वह मुस्कुरा दे, इन कुदरती बंधनों को धता बताते वह एक बड़े पेड़ के नीचे बैठ गया। अपने कमर में बंधे साफे से एक छोटी तस्वीर...