...

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बेटी हूं।
बेटी हूं...
मुझे पढ़ने की इजाजत मिली थी...
ये काफी था...
बाहर जाना और नौकरी करना, ये मेरा सपना था। समझ रहे हो ना "सपना ". और सपने कभी हकीकत नहीं बनते।
मुझे ज्यादा सपने देखने का भी हक नहीं है।
अपने हक के लिए लड़ती हूं तो, मैं बदतमीज, बेपाक, घटिया, बिगड़ी कही जाती हूं।
मुझे बोलने का हक तो कानून ने बराबर दिया था। मगर समाज और मां बाप ने तो ताने और मार ही दी।
एक दिन मैने भी चुना एक सपना, और बहुत संघर्ष करके डिग्री पाई। फीस भी जाने कैसे कैसे चुकाई। मां बाप को भी कह दिया। नौकरी करने बाहर जाऊंगी। इंटरव्यू दिया। नौकरी पाई। हिम्मत करके पूछा नौकरी करने जाना है।
जवाब: तू लड़की है, लड़का नहीं है। कभी घर से बाहर गई भी है। चली जा। निकल।

तब महसूस हुआ। लड़कियों का कोई...
अपना नहीं होता।
उनके सपने तो बड़े होते हैं...
मगर उड़ान देने वाला...
कोई नहीं होता।