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ये शाम ढलते ही अजीब सी बेचैनी क्यों होने लगती है?
मानो हर वो दर्द जो पूरे दिन सीने में दफन रहता,
उन ज़ख्मों को बाहर का रास्ता मिल गया हो।
जैसे आंखों में कैद आंसुओं को रिहाई मिल गई हो।
सारे जज़्बात, सारी उलझनें रात के अंधेरे के साथ जाने क्यों गहराने लगती हैं।
वो शौक जो दिन के उजाले में एक सुकून देते हैं,
वही इच्छाएं ढलते सूरज के साथ ढलने सी लगती है।
मानो जैसे हर वो याद जिसे भुलाने की कोशिश में मैं खुद को भुलाती रही,
वो यादें डायरी के किसी कोने में लिख कर बिसरी हुई तारीख सी सामने आ गई हो।
मानो जैसे दिन भर की थकन का बोझ मन के किसी कोने में दबी बात को उधेरने लगी हो।
जैसे काले बादलों से घिरे आसमान के नीचे बैठने इंसान को अचानक ही बारिश के पहले की वो उमस सताने लगी हो।
जाने ये ढलती शाम के साथ बेचैनी बढ़ने क्यों लगती है....
- ख़्याल
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