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जिसके लहज़े में थोड़ा भी अपना अक्स मिलता है
ऐसा कहाँ ज़माने में अब कोई शख़्स मिलता है

ख़्याल उसका इस क़दर हावी हुआ दिल से हार गया हूँ
ढूँढने पर हर-आदमी उसके ही बर-अक्स मिलता है

मुन्फरिद है वो, मुख़्तलिफ़ इतना अलग ही दिखाई दे
उसे रोज़ कहाँ ख़्वाबों में आने का फिर वक़्त मिलता है

बोली में उसके इतनी शग़ुफ़्ताई कि सुनता रहूँ बस
मगर जो भी मिलता है लहज़ा लिए सख़्त मिलता है

शब-ए-फ़िराक़ गुज़ारना मुहाल हो जाता है अक्सर ही
बिन तेरे रात गुज़रे नहीं,ऐसा कोई ना दरख़्त मिलता है

उसको ज़ुल्फ-ए-पेचाँ ऐसी कि मैं उलझ कर रह गया हूँ
निकलें कैसे, यहाँ से निकलने का कहाँ रख़्त मिलता है

बर-अक्स - उल्टा
मुन्फ़रिद- अनोखा
मुख्तलिफ - बिलकुल अलग
शगुफ्ताई - नरमाई
शब ए फ़िराक - जुदाई की रात
दरख़्त - पेड़
रख़्त - उपकरण, सामान, अस्बाब

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