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" इक रोज़ तुझसे कहीं ना कहीं वाकिफ यार हो ही जाऊंगा ,
तु मुहब्बत की कुछ गुंजाइश तब्बजो कर मैं तेरा साकी हो ही जाऊंगा‌ ,
फिर फ़िरदौस जो हो सो हो ऐसे में कहीं ना कहीं ,
मैं तेरा मुन्तजिर यार दीदारे-ए-ख़्वाब हो जाऊंगा . "

--- रबिन्द्र राम

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