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उमड़ घुमड़ फ़िर घिर आई बदरी,
चहुं दिशा अवनि पे तरनी पसरी;
पीने को पानी नहीं खाली गगरी,
त्राहि त्राहि सब वन मानव नगरी।
फ़िर भी मानव नीयत ना सुधरी,
लोभ लालसा रहत सदा अधुरी;
मृगतृष्णा कहां कभी होती पूरी,
इच्छाएं नित तरसाती है, ससुरी।
चितवन पर घेरा डारे अंधकार,
चित ना सुन पाता सत्य पुकार;
मानवता मन मौन करें चित्कार,
शनै- शनै मरा ह्रदय स्नेह-प्यार।
चित्त पर बोये जैसे भी विचार,
मानव वैसा ही करता व्यवहार;
नित्य सुना असत्य - अत्याचार,
मन मानता उसको ही सदाचार।