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बेवक्त सा ये जो दर्द है मन में उफ़ान क्यों ले लेता है
तन्हाई का आलम वक्त के साथ,गुज़र क्यों नहीं जाता,
लोगों का काम है यूँ ही बातें बनाना,इश्क है तो मेरा,
हाथ कर तू ताउम्र मेरे संग ठहर क्यों नहीं जाता!
अनजान से शहर मे दर बदर तू,गालियों में घूमा करता
बेनाम सा रिश्ता है वो ग़म-ए-दहर क्यों नहीं हो जाता!
बीच मजधार में फस कर तू गोते लगाते फिरता है,
सागर की गहराइयों में तू मयस्सर क्यों नहीं हो जाता
शायद तुम्हे भूलना मेरे लिए नामुमकिन सा है, तुझे
सोचू जितना याद उतना आता तू बसर क्यों नहीं जाता
मेरे हर एक कहीं बात को तू दिल से लगा लेता है,
तू कोमल क्यों है स्वभाव से,शजर क्यों नहीं हो जाता!
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