...

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कभी मिलो तो बताए तुम्हे की बंद घूँघट के,
पीछे कितने ज़ख्म-ए-राज छुपाए बैठें है!

डरती हूँ एहसास-ए -दिल बयां करने से ना
जाने कितनो के मन में हैवानियत पनपते है!

रोज ऐसे ही बंद दीवारों में अरमानों का गला
घुट जाता है देख कर मन ये दहल जाता है!

यहाँ लोग मरहम तो कम बनते है पर मज़ाक
बनाकर लोगोंकीपरिस्थिति का आनंद लेते है!

सोचती हूँ जंजीर को तोड़ उड़ जाँऊ कहीं,
पर समाज़ के डर से कदम पीछे ही रखते है!

चेहरे पर झूठी मुस्कान लिए ना जाने दिल में,
कितने ही दर्द को दफ़नाये अंदर घुटते है!

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