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"साहिल पे खड़े होकर निहारता,
मैं उद्विग्न लहरों को,
चूमती आहिस्ते-आहिस्ते कभी,
तो कभी झकझोरती पहरों को।
शांत मन में भी उठती हैं कई लहरें,
डुबोती कभी मंझधार में,
तो लाती हैं कभी साहिल पर,
कभी ज़ख्म देती हैं, तो कभी,
मरहम लगाती हैं दिल पर।"
©शैलेन्द्र राजपूत