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ग़ज़ल… २२१ १२२२ २२१ १२२२
एहसास-ए-मुहब्बत का लब पे जो तराना है
समझो तो हक़ीक़त है समझो तो फ़साना है
इक शाम चले आओ पहलू में बिना काजल
रोना है गले लग कर तुमको भी रुलाना है
आहों का वसीला है ये इल्म-ए-ग़ज़ल गोई
बे’नाम सदाओं को मिसरों में सुनाना है
ए मुर्ग़-ए-सहर पैहम मत शोर मचा इतना
नींद आई है मुद्दत से अब होश न आना है
ग़ुर्बत में बसर इक तो ऊपर से मुहब्बत भी
कागज़ का बदन “मौजी” बारिश में नहाना है
ये सख़्त हिदायत है “मौजी” की तबीबों को
उसकी न शिफ़ा करना जो ज़ख़्म पुराना है
वसीला-माध्यम
इल्म ए ग़ज़ल गोई- ग़ज़ल का फ़न
मुर्ग़ ए सहर—सुबह बाँग देने वाला मुर्ग़ा
पैहम—लगातार
ग़ुर्बत— ग़रीबी
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