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1222 /1222 /122
मसर्रत से कोई निस्बत नहीं है
हमारी आप सी किस्मत नहीं है
लगा लेते हैं ग़म को भी गले हम
हमारी रोने की आदत नहीं है

दिसम्बर और उस पर हिज्र तेरा
ज़रा भी ठंड से राहत नहीं है
चले आओ सनम अब पास मेरे
तुम्हे क्या? वस्ल की चाहत नहीं है

ग़लत फ़हमी हुई है आपको ही
हमें तो आपसे उल्फ़त नहीं है

जमा कर जिस्म को रख देगी ये ठंड
ग़रीबों के सरों पर छत नहीं है
भला कैसे करेंगे वो गुज़ारा
हमारे पास वो हिम्मत नहीं है

बुलाले तीर को वापस कमाँ पर
किसी के पास वो ताकत नहीं है

ख़ुदा अब ख़त्म करदे इस "सफ़र" को
मेरी चलने की और चाहत नहीं है

#Shayari #Gazal