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यह मेरा अनुभव है...और एक बार का नहीं दो,तीन बार देखा है मैंने....
ओह...मैंने सुनी सुनाई बातें नहीं मानती...मुझे शिकायत होगी तो लड़ लूंगी... पूछ लूंगी...कुछ भी हवा में नहीं करती...
मैं रिश्तों को संदेहों पर नहीं छोड़ती...जिसने बोली होती है उससे फिर से उसके सामने ही ना उगलवा लूं तब तक भरोसा नहीं करती..
फिर जब इंसान मान जाता है कि हां ऐसी बात थी... तब छोड़ देती हूं उसे भी और उसकी बात को भी...हमेशा के लिए..
मेरे उसको छोड़ने का मतलब उससे बात ना करना या उससे दूर चले जाना नहीं होता है... कहते हैं ना पाप से घृणा करो पापी से नहीं...उससे भरोसा खतम.. और जहां भरोसा नहीं वहां रिश्ता कैसा...तो उससे आत्मा का, साथ का रिश्ता खत्म हो जाता है..लेकिन..
इंसानियत का रिश्ता तो हमेशा ही रहता है...
उसके लिए दया, सहानुभूति, तो रहती है..
उसे जरूरत होगी तो मदद करूंगी... लेकिन मदद लूंगी नहीं...!!