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*** ग़ज़ल ***
*** आजमाइश ***
" क्या बतायें कि किसी की ख़्वाहिश में जिते हैं ,
मुकम्बल जो ना हो जाने किसकी आजमाईश में जिते हैं ,
फिर बेजोर तौर पें तेरा होने का आजमाईश की जाये ,
फिर जाने तुम किसकी ख्वाहिश की तलब किये हो ,
क्या बतायें कि किसी की ख़्वाहिश में जिते हैं ,
मुकम्बल जो ना हो जाने किसकी आजमाईश में जिते हैं ,
रुखसत करें की क्या करें तेरे बगैर ही रहा जाये ,
तसव्वुर के ख्यालों में फिर किसी की आजमाइश की जाये ,
मिला है तो मिल बर्ना कभी ऐसे कभी फ़ुर्क़त हुई ना हो ,
रफ़ाक़त के कुछ सलीके तु मुझपे आजमायें तो सही तो सही हैं ,
रह रह के उठता है गुब्बार तेरा ,
तु भी कभी मुझे इस सलीके से आजमायें सही ,
क्या बतायें कि क्या आजमायें अब ,
मुहब्बत की कौंन सी तिलिस्म आजमायें है,
वो आती हैं और चली जाती मेरी ख़्वाहिशों में ,
कि अब कौन सा क़सम दे उसे जो वो रुक जाये अब . "
--- रबिन्द्र राम
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