...

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ऐ ज़माना!
मैं गिर जाती तेरी ठोकर से किसी खाई मेें लेकिन,
ऐ ज़माना!मुझे खुद से मोहब्बत थोड़ी ज़्यादा है।
मैं बढ़ जाती अंधेरे के संग,आगे की तरफ लेकिन,
सूरज से आँखें मिलाने की चाहत ,मुझमें थोड़ी ज़्यादा है।
आसमां की चादर ओढ़ सो जाती मैं भी,औरों की तरह लेकिन,
चाँद बन के चमकने में, दिल को ख़ुशी ,थोड़ी ज़्यादा है।
मैं बैठ जाती किसी पत्थर पर थक हार कर लेकिन,
बुलंदी के सीने पर सोने में, मन को तसल्ली थोड़ी ज़्यादा है।
कोशिशें तेरी भी मुझे हराने की ,बहुत आला है लेकिन,
ऐ ज़माना! मेरी हिम्मत में ज़िंदगी ,थोड़ी ज़्यादा है।

© fayza kamal