...

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काग़ज़ के टुकड़े
कोशिकाओं से बने जीवित व्यक्ति को
निर्जीव काग़ज़ के टुकडों ने नचाया है
देख जरा इंसान इन पैसों ने क्या-क्या खेल रचाया है।

वैसे तो तु सख्त है पर पैसे देखकर पिगल गया
कभी किसी के अरमान तो काभी किसी के रिश्ते
तु निगल गया
क्या काली कमाई का ढेर कभी तुझे जरा सा भी खला है
क्या याद हैं तुझे उके चेहरे जिन्हें तूने इस काग़ज़ के खतिर छला है।

किसी को चोरी, तो किसी को रिश्वतखोरी करना ये सिखा रहा किसी को सुनहरे ख्वाब दिखता, तो किसी की नींदे उड़ा रहा

इन पैसो के खातिर तूने खाली कर दी इंसानियत की तिजोरी आज चैन से सोता है तु करके कितने नैनो से ख्वाब चोरी
इस काग़ज़ के खातिर तूने असली हीरों को गँवाया है,
जिनको रहती थी तेरी चिन्ता तूने उन्हीं को सताया है।
कभी अपनों को, तो कभी परायों को तूने छला और
छलता ही रहा,
तेरे भीतर के इंसानियत का सूरज दिन प्रति दिन ढलता ही रहा
उस काग़ज़ के सामने तु लाचार है,
ये करवाता तुझसे भ्रष्टाचार है।
लोगों की लाचारी, बीमारी, छल-कपट, भ्रष्टाचार, शोसण इत्यादि से इसने अपना सामराज्य बनाया है,
देख इंसान इस काग़ज़ ने तुझे कितना नचाया है|
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